Ayodhya Ram Temple News: मंदिर आंदोलन को शिखर पर ले जाने वाले दो अविस्मरणीय शिल्पी
Ayodhya Ram Temple News भूमि पूजन से परमहंस और सिंहल की आत्मा को मिलेगा चरम सुख। मंदिर आंदोलन के अनेक निर्णायक मोड़ उनकी चमक से रोशन हैं।
By Anurag GuptaEdited By: Updated: Wed, 29 Jul 2020 01:15 PM (IST)
अयोध्या, (रघुवरशरण)। राममंदिर निर्माण शुरू होने की बेला में रामचंद्रदास परमहंस और अशोक सिंहल की आत्मा को चरम सुख मिल रहा होगा। राममंदिर आंदोलन के फलक पर यह दोनों किरदार किसी किवदंती से कम नहीं हैं। वे अलग-अलग अंदाज मिजाज वाले थे। सिंहल यदि कुलीन, आत्मानुशासित, लक्ष्य के प्रति कठोर और उद्यम से भरे थे, तो परमहंस फक्कड़, हर सांस में आराध्य की मुक्तता के बोध से भरे थे। इन विभूतियों में समानता भी थी। दोनों प्रखर-प्रभावी वक्ता, संगठनकर्ता और मंदिर आंदोलन को पैदा करने से लेकर उसे आसमान तक पहुंचाने वाले थे। मंदिर आंदोलन के अनेक निर्णायक मोड़ उनकी चमक से रोशन हैं।
1949 में ही दृढ़ नायक की तरह सामने आए परमहंस छपरा जिला के भगेरन तिवारी का युवा बेटा चंद्रेश्वर अपनी यायावरी के चलते 1930 में अयोध्या आया और यहीं का होकर रह गया। यहीं के गुरु परमहंस रामकिंकरदास ने दीक्षा के साथ नया नाम भी दिया। चंद्रेश्वर अब रामचंद्रदास हो गए थे। जल्दी ही उनका साबका उस स्थल से पड़ा, जिसे श्रद्धालु रामजन्मभूमि मानते थे और दूसरा पक्ष उसे मस्जिद कहता था। युवा परमहंस के लिए यह असह्य था कि उनके आराध्य भव्य मंदिर में न विराजें।
हरफनमौला परमहंस जितने प्रखर शास्त्र एवं साधना के तल पर थे, उतने ही प्रखर सामाजिक दायित्वों के प्रति भी थे। 1949 में रामजन्मभूमि पर रामलला के प्राकट्य प्रसंग के दौरान वे दृढ़ नायक की तरह सामने आए। पांच दिसंबर 1950 को स्थानीय कोर्ट में वाद भी दायर उन्होंने रामलला के पूजन एवं दर्शन का अधिकार मांगा। 1984 में मंदिर की दावेदारी को जनांदोलन का रूप देने के लिए आगे आई विहिप की भी वे पहली पसंद बने और कुछ ही दिनों में मंदिर आंदोलन का चेहरा बनकर स्थापित हुए। नई दिल्ली की जिस धर्मसंसद में रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति गठित कर संघर्ष का प्रस्ताव पारित किया, उसकी अध्यक्षता रामचंद्रदास परमहंस ने ही की थी। फरवरी 1986 में रामलला का ताला खुलने से पूर्व उन्होंने एलान किया था कि यदि ताला नहीं खुला, तो वे आत्मदाह कर लेंगे। रामजन्मभूमि न्यास अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिलने के साथ उनका कद और व्यापक हुआ। मार्च 2002 में शिलादान के समय मंदिर निर्माण के लिए परमहंस ने आत्महत्या की घोषणा की और उनकी घोषणा के ही चलते केंद्र सरकार के तत्कालीन दूत को मंदिर निर्माण के लिए शिला स्वीकार करनी पड़ी। 31 जुलाई 2003 को परमहंस ने अंतिम सांस ली।
तिलिस्मी आंदोलन के मुख्य शिल्पी अशोक सिंहल तिलिस्मी मंदिर आंदोलन के मुख्य शिल्पी थे। इसके पीछे उनके प्रभावी संस्कार, संगठन एवं संवाद की अपूर्व सामर्थ्य थी। आगरा में पैदा हुए सिंहल के पिता सरकारी कर्मचारी थे। यह जानना रोचक है कि आस्था की अस्मिता जाग्रत करने वाले आंदोलन का अग्रदूत गायकी में भी निपुण था। उन्होंने जाने-माने संगीतज्ञ ओंकारनाथ ठाकुर से गायन की विधिवत शिक्षा ली और गायकी में स्वयं को बराबर आजमाते भी रहे। 1942 में किशोरावस्था के ही दौरान वे आरएसएस से जुड़ कर देश एवं समाजसेवा की ओर उन्मुख हुए। 1950 में बीएचयू से धातु इंजीनियरिंग में स्नातक सिंहल ने जीवन को आरएसएस के प्रति समर्पित किया।
संघ ने उन्हें विराट हिंदू सम्मेलनों का दायित्व सौंपा। इस भूमिका में वे पहले से ही अपना लोहा मनवा चुके थे हालांकि उनका श्रेष्ठतम आना बाकी था और यह 1984 में मंदिर आंदोलन के साथ बयां हुआ। कुछ ही वर्षों में यदि मंदिर आंदोलन परवान चढ़ा, तो सिंहल के नेतृत्व का डंका भी बजा। मंदिर आंदोलन 1989 से 92 तक चरम के उस दौर से गुजरा, जब सिंहल के आह्वान पर लाखों मंदिर समर्थक बराबर जुटते रहे। हालांकि ढांचा ध्वंस के बाद मंदिर निर्माण की लंबी होती प्रतीक्षा के चलते मंदिर आंदोलन का ताप कम पड़ गया पर सिंहल मर्मज्ञ भविष्यद्रष्टा की भांति पूरी गंभीरता से अपने प्रयास में लगे रहे। मंदिर निर्माण का स्वप्न संजोए सिंहल 17 नवंबर 2015 को चिरनिद्रा में लीन हो गए। कोई शक नहीं कि रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का चिर स्वप्न साकार होने से सिंहल की आत्मा अवश्य अत्यंत आनंदित होगी।
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