यूपी में ड्राई डे की अब बदल गई परिभाषा, बकायदा टाइम टेबल जारी कर किया गया डे 'ड्राई' और शाम 'गुलजार'
Satta Ke Galiyare Se जहां की जनता ने चुनाव जिताकर दिल्ली भेजा वह सीट छोड़ने के बाद ऐसी बेरुखी दिखाई कि उपचुनाव में गए तक नहीं। दूसरी सीट पर चचा की इज्जत दांव पर थी उस तरफ भी साइकिल का एक पैडल नहीं मारा।
सत्ता के गलियारे से : लखनऊ [जितेंद्र शर्मा]। सोमरस के शौकीनों के लिए यह शुभ संकेत हैं कि अपने यूपी में 'ड्राई डे' की परिभाषा अब बदल गई है या यूं कहें कि उसका शब्दश: पालन किया जाने लगा है। भला ये भी कोई बात हुई कि घोषणा ड्राई डे की हो और उसमें फिजूल ही शाम व रात भी पिस जाएं। वह क्यों सूखी-सूखी रहें।
खैर, काबिल अफसरों ने वर्षों से चली आ रही गलत परंपरा में सुधार कर दिया। रविवार को विशेष वैश्विक आयोजन के सम्मान में ड्राई डे घोषित किया, लेकिन बकायदा टाइम टेबल के साथ। सुबह दस से शाम पांच बजे तक शराब और भांग की दुकानें बंद कर दीं। मतलब सिर्फ दिन में ही गला सूखा रहा और शाम कर दी गुलजार। यह अफसरों की ही तो समझदारी है कि जो संदेश देना था, वह दे दिया और सरकार को राजस्व का उतरा नुकसान भी नहीं हुआ। इनके लिए आखिर शाबाशी तो बनती ही है।
अब पढ़ाना छोड़एि, कलम उठाइए : 'वैलिडिटी' खत्म होने के बाद साहब को 'एक्सट्रा टापअप' के साथ यहां क्यों भेजा गया? अरे भाई, सीधी सी बात है कि वह दिल्ली में भरपूर काबिलियत दिखाते रहे हैं। लहजा सख्त रहता है। माना जा रहा था कि जिलों में बैठे अफसर अब पहले की तरह मनमानी नहीं कर पाएंगे। आते ही बड़े साहब ने फरमान उसी अंदाज में सुनाए भी। शुरुआत में जो साहब मां दुर्गा की तरह शक्ति का अहसास कराना चाह रहे थे, वह अब भोले शंकर की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। वह जानते हैं कि अफसर सुधरे नहीं हैं। अभी भी जनप्रतिनिधियों का फोन तक नहीं उठा रहे। बड़े साहब हर सप्ताह अफसरों के साथ वीडियो कान्फ्रेंसिंग करते हैं। एक पाठ बार-बार पढ़ाना पढ़ रहा है कि माननीयों का फोन जरूर उठाओ। अरे साहब! यूं बच्चों की तरह कब तक पाठ पढ़ाते रहेंगे? अब कलम उठाकर सबक सिखाइए तो शायद कुछ असर हो।
...वो तो भैया नहीं पहुंच पाए : वैसे भैया हमेशा आत्मविश्वास में डूबे रहते हैं। सामने कैसी भी आंधी चल रही हो, लेकिन उन्हें अपनी लहर पर भरोसा ज्यादा रहता है। युवा जोश है, इसलिए यह स्वाभाविक भी है। मगर, इस दफा न जाने क्या हुआ कि उन्हें अपने किले के ही पत्थर हिलते पहले से महसूस होने लगे। जहां की जनता ने चुनाव जिताकर दिल्ली भेजा, वह सीट छोड़ने के बाद ऐसी बेरुखी दिखाई कि उपचुनाव में गए तक नहीं। दूसरी सीट पर चचा की इज्जत दांव पर थी, उस तरफ भी साइकिल का एक पैडल नहीं मारा। सत्ता के गलियारे में कानाफूसी है कि भैया को परिणाम का अंदाजा पहले से था। जाने से भी कोई असर पड़ने वाला नहीं था। अब कम से कम समर्थकों के जरिए यह बात तो पहुंचाई जा सकती है कि चुनाव के परिणाम कुछ और ही होते, वह तो किसी कारण भैया प्रचार करने के लिए जा नहीं पाए।
मल लीजिए राख, शायद बची हो कुछ आग : मुट्टी हर बार हर मुद्दे पर भींचते हैं और अंतत: हाथ मलते रह जाते हैं। फिर माथा पकड़ कर वही दुहाई कि शायद हाथ की लकीरों में यही लिखा था। यूं किस्मत को कोसने से भला क्या होगा? बेहतर यह देखना होगा कि चुनावी मशाल में आग रखी थी या राख। अब ताजा मामला ही देखिए, दिल्ली के बड़े चुनाव की तैयारी है, लेकिन मुद्दा कौन सा उठाया? जिसका कुछ दिन में ही दम लगभग निकल चुका है। पहले जरूर लगा था कि युवा जिस गुस्से में सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरे, वह सरकार के लिए अग्निपथ साबित हो सकता है और विपक्ष उसी रास्ते कुर्सी तक पहुंच सकता है। खैर, जब गलतफहमियों के पर्दे हटे तो युवाओं को ही वहां भविष्य का रास्ता दिखने लगा और विपक्ष की उम्मीदों पर कुंहासा छाने लगा। इसके बावजूद पंजे वाले अब उसी ठंडी राख को मलकर आग की आस लगाए बैठे हैं।