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किस्सा कठपुतली का : आओ सुनाएं, गुलाबो-सिताबो की कहानी Lucknow News

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देशप्रेम जगाने के लिए होता था कठपुतलियों का इस्तेमाल।1956 में नैनी एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट में अमेरिकी आर्टिस्ट ने प्रशिक्षण देकर दिया था नया रूप।

By Anurag GuptaEdited By: Updated: Wed, 26 Jun 2019 08:42 AM (IST)
किस्सा कठपुतली का : आओ सुनाएं, गुलाबो-सिताबो की कहानी Lucknow News
लखनऊ, (महेंद्र पांडेय )। गुलाबो-सिताबो...। यह सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की आने वाली फिल्म का नाम है। इन दिनों 'बिग-बी' नवाबों के शहर में इसी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हैं। अमिताभ बच्चन ने जब से शूजीत सरकार की इस फिल्म को साइन किया है, तब से गुलाबो-सिताबो सुर्खियों में हैं। पर, तमाम लोगों के जेहन में यह सवाल है कि इस फिल्म की कहानी क्या है और कौन हैं गुलाबो-सिताबो? दरअसल, ये कठपुतली किरदारों के नाम हैं। उत्तर प्रदेश की कला एवं संस्कृति में रची-बची गुलाबो-सिताबो की रोचक कहानी है। अतीत में ये घुमंतू जातियों के परिवार की सदस्य थीं। वे इन किरदारों के नाम से सास-बहू या ननद-भाभी के झगड़ों के किस्से सुनाते और लोगों का मनोरंजन करते थे। गुलाबो-सिताबो उनकी आजीविका का साधन भी थीं। 
साग लायी पात लायी और लायी चौरैया, 
दूनौ जने लड़ै लागीं, पात लै गा कौआ। 

गुलाबो खूब लड़े है...सिताबो खूब लड़े है...। 
...अरे देखो फिर लड़ै लागीं गुलाबो-सिताबो। आओ हो...देखो बच्चों शुरू हो गईं दोनों...। कठपुतली किरदार गुलाबो-सिताबो की लड़ाई के किस्से अवध में लंबे अरसे से सुनाए जाते रहे हैं। घुमंतू जातियों के लोग गुलाबो-सिताबो के किरदार के जरिए पारिवारिक झगड़ों के किस्से सुनाते थे। वैसे, अवध में कठपुतलियों का इतिहास नवाबों के शासनकाल से है। उस दौर में घुमंतू परिवार कठपुतली नृत्य के जरिए लोगों का मनोरंजन करते थे। नवाब वाजिद अली शाह के शासन में पपेट शो की शुरुआत हुई थी। कालांतर में कठपुतलियां कला का पर्याय हो गईं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम तक कठपुतिलयों का इस्तेमाल लोगों में देश प्रेम जगाने के लिए किया जाने लगा था। 

इन्होंने दिलाई गुलाबो-सिताबो को ख्याति 
गुलाबो-सिताबो का सफर भले ही आजादी से पहले शुरू हुआ था, लेकिन प्रदेश में इसे पहचान मिली 1950 के दशक में। राजाजीपुरम निवासी पपेट आर्टिस्ट अलख नारायण श्रीवास्तव बताते हैं कि प्रतापगढ़ निवासी राम निरंजन लाल, बीआर प्रजापति और जुबोध लाल श्रीवास्तव सरीखे कलाकारों ने गुलाबो-सिताबो को ख्याति दिलाई। इन कलाकारों ने वर्ष 1956 में नैनी एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट में कठपुतली बनाने का प्रशिक्षण लिया था। उन्हें अमेरिकी पपेट आर्टिस्ट एल्विन ब्रुस ने प्रशिक्षित किया था।

इसके बाद गुलाबो-सिताबो के रंग-रूप में भी परिवर्तन आया। राम निरंजन, बीआर प्रजापति और जुबोध लाल ने कठपुतली कला को अपनी पहचान का माध्यम बनाया। अलख नारायण ने भी उनसे प्रशिक्षण लिया और कठपुतलियां बनाने लगे। इसके बाद लखनऊ, दिल्ली समेत कई राज्यों में पपेट शो किया, लेकिन किरदारों का नाम गुलाबो-सिताबो ही रखा। दरअसल, इसकी लोकप्रियता उस दौर में तेजी बढ़ रही थी, इसलिए उसके नाम में परिवर्तन नहीं किया। बाद में हैंडीक्राफ्ट बोर्ड से जुड़े और गुलाबो-सिताबो के जरिए सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार करने लगे। लद्दाख में सेना के जवानों के मनोरंजन के लिए भी वह पपेट शो करने जाते थे। 

कला-संस्कृति का हिस्सा हैं गुलाबो-सिताबो
कठपुतली भले ही बेजान होती हैं, पर वे ऑडियो एवं विजुअल के माध्यम से सहजता से संदेश देती हैं। अलख नारायण कहते हैं कि कठपुतलियों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का सबक भी समाज ने लिया है। पर, दुखद यह है कि समाज में अब यह कला धूमिल हो रही है। इस कला को नई चेतना देने के लिए सरकार को ठोस प्रयास करना चाहिए। 

पांच तरीके की होती हैं कठपुतलियां 
स्टिंग पपेट : यह कठपुतली कपड़े और धागे से बनाई जाती हैं। राजस्थान में ज्यादातर इनका ही इस्तेमाल होता है। 

ग्लब पपेट : यह कठपुतली कपड़े के साथ हाथ में ग्लब्स पहने होती हैं। उत्तर प्रदेश में इनका इस्तेमाल किया जाता है।

रॉड पपेट : इस तरह की कठपुतली पश्चिम बंगाल में बनाइ्र्र जाती हैं। इन्हें लोहे के रॉड के सांचे में बनाया जाता है।

लेदर पपेट : आंध्र प्रदेश में लेदर की कठपुतलियां मनोरंजन का श्रेष्ठ माध्यम हैं। 

सैडो पपेट : यह आंध्र प्रदेश समेत दक्षिण भारत में दिखती हैं। इसे कागज और गत्ते से बनाया जाता है। 

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