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लखनऊ में दो सौ वर्षों से भी ज्यादा पुरानी परंपरा टूटी, चुपके से विदा हो गए बड़े मंगल

कोरोना के कारण इस बार जेठ के सभी बड़े मंगल पर लखनऊ की रंगत फीकी रही।

By Anurag GuptaEdited By: Updated: Tue, 02 Jun 2020 02:02 PM (IST)
लखनऊ में दो सौ वर्षों से भी ज्यादा पुरानी परंपरा टूटी, चुपके से विदा हो गए बड़े मंगल
लखनऊ, (दुर्गा शर्मा)। नये दिन की चुप्पी तोड़ता भाेर का हल्का अंधेरा। सूरज जागता, साथ में अपना शहर भी जागने लगता। महावीर के जयकारे का स्वर पहले मद्धिम और फिर स्पष्ट सुनाई देता। हनुमान चालीसा का पाठ भी कानों में पड़ता। आस्थावान अकेले या समूह में कमर में लाल लंगोटी लपेट कर सड़क पर लेटते हुए, रेंगते हुए बजरंगबली के दर्शन के लिए सुबह-सुबह हनुमान मंदिर के लिए प्रस्थान करते। इसमें बच्चे भी शामिल होते। सूरज चढ़ने के साथ ही नजारा बदलने लगता। त्योहार सी रौनक लिए शहर सतरंगी सजता। जेठ की तपती दुपहरी में भंडारों की तैयारी होती। हर दो कदम पर भंडारे की रौनक देखते ही बनती। कैसा भी रास्ता हो, संकरा या चौड़ा, भंडारा जरूर लगा मिलता। प्याऊ भी लगते। शरबत भी बांटा जाता।

राजधानी लखनऊ में जेठ के सभी मंगल को कोई भूखा प्यासा नहीं रहता। इस दिन शायद ही किसी के घर पर खाना बनता। बने भी क्यों, जब भंडारे में ही जायका और विविधता का मेल मिलता। पूड़ी, आलू की सब्जी और चना तो प्रमुख होते ही, पर भंडारे का स्वाद सिर्फ इसी पर नहीं रुकता। कहीं-कहीं छोले भी मिलते, कढ़ी चावल भी होता। साथ में बूंदी या बेसन के लड्डू भी। बदलते समय के साथ भंडारों का ट्रेंड भी बदला। आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक और चाऊमीन आदि भी भंडारे का प्रसाद हो गए। चाहे पहला हो या आखिरी बड़ा मंगल, हर कोई सुबह बस हल्का नाश्ता करके घर से निकलता, फिर रात तक के खाने की फिक्र न करनी पड़ती।

स्कूटर-कार से उतरकर भंडारे से प्रसाद ग्रहण करने में किसी को कोई झिझक भी नहीं होती, दोबारा सोचना न पड़ता। कोई तो वहीं खड़े होकर खाता, कोई गाड़ी में बैठकर तो कई लोग पैक कराकर घर ही ले जाते। एसी रूम में बैठकर सपरिवार भंडारे का प्रसाद खाते। कहने को तो प्रसाद, लेकिन पेट जब तक न भरे, खाते ही जाते। लखनऊ में बड़े मंगल की एक और खासियत रही है, इस दिन सरकारी दफ्तरों में काम न होता। आधे से ज्यादा स्टाफ भंडारे में प्रसाद बांटता ही मिलता। कुछ लोग तो परिवार को दफ्तर बुलाकर सपरिवार भंडारा वितरण करते।

भंडारे में सिर्फ आस्था नहीं हमारी सांझी सांस्कृतिक विरासत का गाढ़ा रंग भी दिखता। जेठ की आग बरसती दुपहरी में भंडारा कोई भी लगाए, वो किसी भी धर्म का हो, सेवा के साथ बस मानवता का निश्चल भाव होता। आराध्यदेव अब भी वही हैं, आस्थावान भी हैं, बस कोरोना के कारण इस बार जेठ के बड़े मंगल पर लखनऊ की रंगत फीकी रह गई। दो सौ वर्षों से भी ज्यादा पुरानी परंपरा इस बार टूट गई। भक्त और भगवान के बीच कपाट बंद रहे। चुपके से बड़े मंगल विदा हो गए। भंडारे नहीं सजे, गलियां और मन दोनों ही सूने रहे। भोर के हल्के अंधरे ने नये दिन की चुप्पी फिर तोड़ी है। सूरज के साथ बाहें फैलातीं उम्मीद की किरणें ये संदेश दे रहीं, भंडारों से गलियां जरूर गुलजार होंगी। हर बंद किवाड़ खुलेंगे।

रौनक फिर लौटेगी...

कोरोना काल में दिखी ऑनलाइन आस्था पिछले कई वर्षों से संगीत कला संस्थान की महावीर महोत्सव समिति की ओर से चिनहट के महावीरन मंदिर में बड़े मंगल के अवसर पर महावीर महोत्सव का आयोजन होता आया है। कोरोना महामारी के इस विकट समय में समिति द्वारा आयोजन के स्वरूप को बदल दिया गया। इससे कार्यक्रम का फलक भी बड़ा हो गया। पहले संस्थान के विद्यार्थी, कुछ स्थानीय कलाकार और लोग ही इसमें शामिल होते थे, पर इस बार आयोजन ने 24 घंटे का इंटरनेशनल फेसबुक लाइन कॉन्सर्ट का रूप ले लिया। इसमें देश ही नहीं, विदेशों के भी ख्याति प्राप्त शास्त्रीय संगीत के कलाकार जुड़े।

आखिरी बड़ा मंगल के अवसर दो जून को सुबह पांच बजे से शुरू कॉन्सर्ट अगले दिन सुबह पांच बजे तक चला। हनुमान चालीसा के पाठ के बाद एक के बाद एक ऑनलाइन प्रस्तुतियां शुरू हुईं। कंठ संगीत के साथ ही वाद्ययंत्रों और घुंघरुओं की जुगलबंदी क्या खूब रही।

ये कलाकार हुए शामिल

लखनऊ से प्रो. कमला श्रीवास्तव, डॉ. पूनम श्रीवास्तव, रिद्धिमा श्रीवास्तव, अभिरुक श्रीवास्तव, डॉ. रुचि खरे वर्मा, अभिजीत रॉय चौधरी, कमला कांत, किशाेर चतुर्वेदी, रश्मि चतुर्वेदी, शीतल प्रसाद मिश्र, भरत मिश्र, नाना-नाती की जोड़ी पं. रविनाथ मिश्रा और आराध्य प्रवीन, मनीषा मिश्रा, मंजुषा मिश्रा, डॉ. सीमा भारद्वाज, अभिजीत रॉय चौधरी, निधि निगम, प्रभात नारायण तिवारी और मधुकर तिवारी, शिवा दुबे, सोहम, स्वयं, असम से दिव्यज्योति और रोजी ब्रह्म, वृंदावन से आस्था गोस्वामी, दिल्ली से चंद्रिमा मजूमदार, इटली से मानो मंजारिया, कनाडा से प्रोसेनजीत, कैलिफोर्निया से सोनाली श्रीवास्तव। 

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