इंद्रधनुष में भी कम पड़ जाएंगे, लखनऊ में इतने रंग हैं..., पढ़ें लोकगायिका मालिनी अवस्थी से बातचीत के प्रमुख अंश
लखनऊ एक ऐसा शहर है जिसकी रंगत इंद्रधनुष से भी ज्यादा है। इस शहर की मिट्टी रहन-सहन खान-पान कला-संस्कृति संगीत-नृत्य परंपरा सभी कुछ अनोखा है। यह बातें लाेक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी और सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी ने कही। सूत्रधार दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रमुख आत्म प्रकाश मिश्र लखनऊ के रंगों को जानने के लिए संवाद के प्रमुख अंशों को पढ़कर लखनऊ के रंगों में खो जाइए।
महेन्द्र पाण्डेय, लखनऊ। अपनी तरह का पूरी दुनिया में अकेला शहर है लखनऊ। आप संसार में कहीं भी चले जाइए और दो लाइन गुफ्तगू करिए।अगला पलटकर कह देगा- आप लखनऊ से हैं? दरअसल, यहां की माटी ही ऐसी है, जिसमें ऐसा अदब घुला हुआ है। अगर किसी की परवरिश यहां हुई है तो उसकी तबीयत में एक लखनवीपन आ जाता है। इस लखनऊ में इतने रंग हैं कि इंद्रधनुष में भी रंग कम पड़ जाएंगे। लखनऊ पर बातें छिड़ीं तो यहां की मिट्टी, रहन-सहन, खान-पान, कला-संस्कृति, संगीत-नृत्य परंपरा सभी बिंदु स्पर्श होते गए।
संवादी का पांचवां सत्र था- 'लखनऊ सबरंग'। मंच पर थीं लाेक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी और सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी। सूत्रधार दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रमुख आत्म प्रकाश मिश्र लखनऊ के रंगों को जानने के लिए चौक पहुंचे।तवायफों पर काफी काम कर चुकीं मंजरी चतुर्वेदी से उनका अनुभव पूछा- वह बोलीं, लखनऊ में इंद्रधनुष से भी अधिक रंग हैं। एक रंग अलग कर पाना मुश्किल है। मेरे काम में लखनऊ दिखता है, चाहे मेरा काम तवायफों पर क्यों न हो। मैं तवायफों को वेश्या नहीं मानती, क्योंकि औरतों का इतिहास मर्दों ने लिखा है। इनकी कला-संस्कृति हमारी धरोहर है। लखनऊ में जितनी कला-संस्कृति पनपी, उनकी दुनिया में कहीं नहीं पनपी।
मंजरी के इन शब्दों से आत्मप्रकाश के चेहरे पर संतोष के भाव उभरे, किंतु वह अभी चौक से निकलना नहीं चाहते थे। पूछा- यहां ऐसा क्या रहा, जिसके बारे में बहुत कुछ कहा गया? मंजरी बोलीं, चौक पहले परफार्मेंस का एरिया (तवायफों का इलाका) रहा। लोग वहां जाते थे। पैसे देते और ठुमरी, दादरा, कथक सुनते-देखते थे। लस्सी पीते और घर चले जाते थे।
आज के दौर में लोग सिनेमा हाल में यही करते हैं। फिल्म देखते हैं, पापकार्न खाते हैं, कोल्डड्रिंक पीते हैं और चले आते हैं। 200 वर्ष पहले की बात करो तो लोग इसे गलत मानते हैं, लेकिन तवायफों ने ही इसे बचाकर रखा था जो हम आज नृत्य करते हैं और मालिनी अवस्थी गाती हैं। बेगम अख्तर भी तो तवायफ थीं, पर उन्हें हम बेगम कहते हैं, क्योंकि हम उनकी इज्जत करते हैं।
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