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सतत प्रशिक्षण की आवश्यकता से ही थमेगी उत्तर प्रदेश पुलिस की जगहंसाई

उन्नाव शहर के शुक्लागंज मार्ग स्थित अकरमपुर में गत बुधवार को जाम-प्रदर्शन के दौरान जब आक्रोशित जनता हमलावर होकर पुलिस टीम पर पथराव करने लगी तो प्लास्टिक के स्टूल को हेलमेट बना यह सिपाही भीड़ को खदड़ने लगा। छायाकार धीरेंद्र सिंह

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 21 Jun 2021 10:58 AM (IST)
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पुलिसवाले बिना हेलमेट ही जब पथराव की जद में उन्हें प्लास्टिक के स्टूल रखकर सिर की रक्षा करनी पड़ी।
लखनऊ, राजू मिश्र। उत्तर प्रदेश पुलिस आखिर क्यों कभी अपराधियों की तलाश में मुंह से ठांय ठांय करते मीडिया में धरी जाती है या हेलमेट की जगह प्लास्टिक का स्टूल और ढाल की तरह हाथ में लकड़ी की टोकरी थामे पकड़ी जाती है। पहली नजर में इस तरह की घटनाएं जगहंसाई का माध्यम बनती हैं, लेकिन रुला तब जाती हैं जब बिकरू जैसे कांड हो जाते हैं। जवाहरबाग जैसे कांड हो जाते हैं या सीओ जियाउल हक की हत्या जैसे जघन्य कांड सामने आते हैं। इन्हें केवल अपवाद भी नहीं कहा जा सकता है। यह तो कुछ बड़े उदाहरण मात्र हैं। बिना उचित फोर्स और सुरक्षा कवच के पुलिस का मौके पर पहुंच जाना और फिर या तो अपराधियों के हाथों पिटाई या जान गंवाने की घटनाएं कम नहीं हैं।

ये सवाल पिछले दिनों उन्नाव की उस घटना के बाद पैदा हुए हैं जिसमें दो लोगों की दुर्घटना में मौत के बाद ग्रामीण शव रखकर सड़क जाम कर रहे थे। इस दौरान पथराव और तोड़फोड़ में एसडीएम सदर, सीओ, दारोगा और 17 पुलिसवाले घायल हो गए। कारण यह था कि पुलिस हाथों में लकड़ी की टोकरी और क्रेट को ढाल की तरह पकड़कर उपद्रवियों से निपटने पहुंच गई। कुछ पुलिसवाले बिना हेलमेट ही जब पथराव की जद में आने लगे तो उन्हें प्लास्टिक के स्टूल रखकर सिर की रक्षा करनी पड़ी। इससे सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या पुलिस के पास संसाधनों की कमी है। प्रशिक्षण में कमी है या उनमें वह प्रोफेशनल योग्यता व दक्षता नहीं है, जो पुलिस जैसी फोर्स में होनी चाहिए।

पुलिस के बड़े अफसरों का कहना है कि संसाधनों की कमी नहीं है, लेकिन इतने बड़े बवाल की आशंका नहीं थी। यानी पुलिस के अफसरों से स्थिति को भांपने में चूक हुई है। यह चूक ही चिंताजनक है। बिकरू कांड में भी ऐसी ही चूक हुई थी। हालांकि कानपुर के बिकरू कांड में कई दूसरे कारण भी अहम थे, लेकिन यह भांपने में चूक हुई थी कि जिस विकास दुबे को पकड़ने पुलिस जा रही है, उसके पास किस तरह के हथियार हैं और उसकी अपेक्षा पुलिस की तैयारी कितनी है। अन्य घटनाओं में भी देखें तो इसी तरह की चूक होती रही है। कई बार यह चूक इस गलतफहमी में हो जाती है कि खाकी के सामने भला कौन मुकाबले को खड़ा हो सकता है। यह सच भी है कि कोई सामान्य नागरिक सामान्य परिस्थिति में भी पुलिस से उलझना नहीं चाहता। किंतु पुलिस को भीड़ का मनोविज्ञान भूलना नहीं चाहिए। यहीं यह संदेह भी पैदा होता है कि पुलिस के मिडिल लेवल अफसरों और जवानों की भी क्या उस दृष्टिकोण के साथ ट्रेनिंग हो पा रही है या नहीं, जिसकी रोज के रोज बदलती परिस्थितियों में आवश्यकता है। यह भी सवाल है कि क्या एक निश्चित अंतराल में पुलिस के इस स्तर के जवानों व अफसरों की रिफ्रेशमेंट ट्रेनिंग नहीं होते रहनी चाहिए। उन्नाव की घटना में चूक सिर्फ स्थिति को भांपने में ही नहीं हुई, बल्कि खुद पुलिस के अफसरों ने स्वीकारा है कि पथराव के दौरान पुलिस कर्मी आगे थे और रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) पीछे थी।

वर्तमान सरकार ने पुलिस आधुनिकीकरण और पुलिस फोर्स की संख्या बढ़ाए जाने के मामले में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। बड़ी संख्या में सिपाही और दारोगा स्तर पर भर्तियां हुई हैं। हालांकि संख्याबल अब भी मानक स्तर पर नहीं है। फिर भी पहले से स्थिति बेहतर हुई है। यह भी सच है कि आधुनिक संसाधन भी जुटाए जा रहे हैं, लेकिन खामी के दो स्तर साफ नजर आते हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। एक तो यह कि शांति व्यवस्था और अपराध विवेचना में लगी फोर्स को वैसे हथियार और सुरक्षा उपकरण नहीं प्राप्त हैं जिस तरह के तमाम नेताओं की सुरक्षा में लगे जवानों को हासिल हैं। यही स्थिति प्रशिक्षण की भी है।

यह देखना होगा कि पुलिस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में क्या गुणवत्तापरक प्रशिक्षण दिया जा रहा है या प्रशिक्षण के नाम पर केवल खानापूर्ति ही की जा रही है। उन्नाव प्रकरण पर पुलिस महानिदेशक ने उन्नाव के एसपी से स्पष्टीकरण मांगा है। लेकिन यह कवायद सिर्फ औपचारिक कार्रवाई तक सिमट कर रह गई तो जगहंसाई और नुकसान की दूसरी घटनाएं फिर होंगी। जरूरत इस बात की है कि उन पहलुओं को भी खंगाला जाए जिससे इस तरह की घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं। इस समय पुलिस फोर्स में बड़ी संख्या में फील्ड में युवा अधिकारी व जवान तैनात हैं। इनमें जोश है, लेकिन जोश को होश में बदलने के लिए इनके सतत प्रशिक्षण की आवश्यकता पहले से अब कहीं ज्यादा है।

[वरिष्ठ समाचार संपादक, उत्तर प्रदेश]

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