UP Politics: बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम..!, उपचुनाव में हार में जीत का आनंद लेने का प्रयास कर रहीं मैडम
UP Politics हाथी न जाने क्यों इतना अलसा गया है कि कई नए रास्ते दिखाए लेकिन कदम बढ़ाता ही नहीं। मैडम का फंडा साफ है कि जब सत्ता के गलियारे की बड़ी कुर्सी नहीं मिलेगी तब तक घर के सोफे पर ही विराजमान रहेंगी। दौड़-धूप कर फिजूल पसीना क्या बहाएं।
सत्ता के गलियारे से : लखनऊ [जितेंद्र शर्मा]। हार में जीत का आनंद लेने का प्रयास कितना भी किया जाए, लेकिन हकीकत तो दिल जानता ही है। हाथी न जाने क्यों इतना अलसा गया है कि कई नए रास्ते दिखाए, लेकिन कदम बढ़ाता ही नहीं। मैडम का फंडा साफ है कि जब सत्ता के गलियारे की बड़ी कुर्सी नहीं मिलेगी, तब तक घर के सोफे पर ही विराजमान रहेंगी। दौड़-धूप कर फिजूल पसीना क्या बहाएं। कुछ तो करना ही है, इसलिए कभी बिसात बदलती हैं तो कभी मोहरे।
नए आइडिया का भी अकाल सा पड़ गया है, इसलिए पुराने फार्मूले को नए सिरे से लागू करती हैं और कुछ समय बाद उसे बदलकर फिर कोई पुराना ही पैंतरा आजमाने लगती हैं। दल की मुखिया हैं, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं कि इसकी वजह पूछ ले। कानाफूसी में जवाब जरूर मिल जाता है कि मैडम यह सब सिर्फ इसलिए कर रही हैं कि बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम...!
हाथ में ठीकरा, फोड़ने का मिले सिर : अपने भैया भरपूर कान्फिडेंस में थे, इसलिए धूल-धूप से खुद को सुरक्षित रखा। भगवा खेमे वालों ने दो सीटों पर रास्ते ही नहीं दम से रौंदे, बल्कि पुरानी नींव तक उखाड़ फेंकी। तब से जिधर देखो, उधर इसी हार की चर्चा है। बचाव में भैया ने बेईमानी के आरोप लगा दिए। तमाम तर्क दे दिए, लेकिन अंदर ही अंदर वह शायद अपने लोगों की परफार्मेंस से खुश नहीं थे।
विधानसभा चुनाव से लेकर अब तक की हार का ठीकरा कब से हाथ में लिए बैठे थे। सर्वेसर्वा खुद हैं तो वह ठीकरा अपने सिर पर तो फोड़ नहीं लेंगे। खैर, बड़े इंतजार के बाद अब चाबुक चलाया है। प्रदेश में सिर्फ एक खास की कुर्सी सुरक्षित रखते हुए बाकी सभी को पैदल कर दिया है। कहा कुछ नहीं है, लेकिन इशारा सभी को मिल गया है कि सेना को हार का दोषी माना गया है और सेनापति बाइज्जत बरी।
जिसने पाप न किया हो : कौन सी नदी का उद्गम कहां है और कहां तक जाती है, यह नक्शों में मिल जाएगा, लेकिन भ्रष्टाचार की धारा का क्या करें? विद्वानों के अलग-अलग मत हैं या हो सकता है कि यह विभाग या अफसर पर निर्भर करता हो कि भ्रष्टाचार की धारा ऊपर से नीचे तक आती है या नीचे से ऊपर तक जाती है। इस झमेले में फंसना समय बर्बाद करना है। आखिरकार सिस्टम वालों ने ही इसका बढ़िया तोड़ निकाला है।
बड़ी-बड़ी कुर्सी वाले अफसरों की विभागीय जांच उन्हें सौंपी जाएगी, जो ऐसी ही बड़ी कुर्सी से रिटायर हुए हैं। इसमें सबसे अच्छी बात यह है कि रोटी फिल्म के उस गाने का संदेश पूरी तरह अंगीकार किया गया है, जिसमें ऐसा व्यक्ति चुनने की गुहार लगाई गई है कि जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो। यह व्यवस्था सही भी है, क्योंकि कोई दागी व्यक्ति भला कैसे न्याय कर सकता है।
लीजिए, अब छूट गई आखिरी ट्रेन : तबादलों का आखिरी दिन था कि हर विभाग में तबादला एक्सप्रेस दौड़ पड़ी। यह इतनी ओवरलोड थी, क्योंकि यह आखिरी ट्रेन थी। उसके बाद ट्रांसफर को हरी झंडी मिलना आसान नहीं है। प्रश्न यह है कि जब मौका लगभग महीने भर का मिला था तो आखिरी दिन ही थोक तबादले क्यों? दरअसल, बड़े अफसर जानते हैं कि कैसे लटकाना-भटकाना है।
पहले सूची जारी कर देते तो वह प्रार्थी गुहार लगाने आ जाते कि हमारा भी तबादला कर दीजिए। आखिरी दिन जिसे चाहा, उसे मनचाही पोस्टिंग दे दी। जिसका नहीं हुआ, उसके लिए गुहार के रास्ते भी बंद। तुर्रा यह कि कोई दबाव न बना सके, इसलिए ऐसा किया जा सकता है, जबकि सिस्टम में अधीनस्थों की अर्जी कैसे रेंगती है, इसका ताजा उदाहरण सामने है। कई वर्षों से ट्रांसफर के लिए गिड़गिड़ा रहे बीमार डाक्टर की अर्जी पर बड़े साहब की सहमति तब मिली, जब वह बेचारे स्वर्ग सिधार गए।