Move to Jagran APP

Uttarakhand Glacier Burst: बेहद संवेदनशील हैं उत्‍तराखंड की 13 झीलें, तबाही से बचने को नियमित मॉनीटरिंग जरूरी

Uttarakhand Glacier Burst भूवैज्ञानिक कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज के कारण जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं इन झीलों का आकार बढ़ता जा रहा है जो खतरे की घंटी है। वक्त आ गया है कि इन झीलों व उनके इर्द-गिर्द रिमोट सेंसिंग के माध्यम से रियल टाइम मॉनिटरिंग की जाए।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Tue, 09 Feb 2021 05:06 PM (IST)Updated: Wed, 10 Feb 2021 09:48 AM (IST)
ऊपरी हिमालय में मौजूद हैं 486 हिमनद झीलें। आपदा प्रबंधन के लिए रियल टाइम मॉनिटरिंग समय की जरूरत।

लखनऊ, [रूमा सिन्हा]। Uttarakhand Glacier Burst: वर्ष 2013 में केदारनाथ और दो रोज पूर्व चमोली के नंदा देवी बायोस्फीयर क्षेत्र में हुई कुदरती तबाही। शायद यह उन भूवैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी का ही नतीजा है जिनको हम भूगर्भीय जोखिमों से घिरे उत्तराखंड में सालों से लगातार नजरअंदाज कर विकास योजनाओं को बेतरतीब ढंग से लागू करते आ रहे हैं। अभी भी समय है कि हम चेत जाएं। नहीं तो उत्तराखंड में ऐसी तबाही के मंजर भविष्य में और भी देखने को मिल सकते हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण उत्तरी क्षेत्र (जीएसआई) द्वारा तैयार इन्वेंटरी के अनुसार उत्तराखंड के ऊपरी हिमालय क्षेत्र में एक-दो नहीं, तमाम भूगर्भीय खतरों से घिरी 486 ग्लेशियर झीलें हैं। केदारनाथ त्रासदी के बाद जीएसआई द्वारा तैयार इन्वेंटरी में इनमें से 13 झीलों को भूगर्भीय जोखिमों के लिहाज से बेहद संवेदनशील माना गया है। बावजूद इसके ग्लेशियर की इन संवेदनशील झीलों पर लगातार नजर रखने के लिए बीते सात वर्षों में कोई कारगर योजना आकार नहीं ले पाई।

भूवैज्ञानिक कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज के कारण जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, इन झीलों का आकार बढ़ता जा रहा है जो खतरे की घंटी है। वक्त आ गया है कि इन झीलों व उनके इर्द-गिर्द रिमोट सेंसिंग के माध्यम से रियल टाइम मॉनिटरिंग की जाए। जीएसआई के पूर्व उप महानिदेशक डॉ.दीपक श्रीवास्तव कहते हैं कि इसके लिए इस क्षेत्र में काम करने वाली यूनिवर्सिटी, संस्थान आदि को मिलकर कार्य करने की जरूरत है। क्योंकि माल अचेत्र बहुत बड़ा है इसलिए इसको संस्थानों के बीच विभाजित कर लगातार निगरानी करनी होगी और इसकी हर साल रिपोर्ट एनडीआरएफ को भेजी जानी चाहिए जिससे वह खतरे के हिसाब से अपनी तैयारी कर लें। डॉक्टर श्रीवास्तव बताते हैं कि केदारनाथ घाटी में हुई तबाही की आशंका दो-ढाई दशक पहले उनके द्वारा किए गए अध्ययन में ही की गई थी। लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है वैज्ञानिक सिफारिशों व रिपोर्टों को अलमारी में ही धूल फांकने के लिए छोड़ दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि ऐसी सभी रिपोर्टों पर ध्यान दिया जाए। उत्तराखंड में जनजीवन का आगे नुकसान ना हो, इसके लिए बेहद जरूरी हो गया है कि हिमनद झीलों पर नजर रखने के लिए एक ठोस तंत्र बनाया जाए।

जीएसआई के वैज्ञानिकों की टीम जल्द करेगी सर्वे

जीएसआई लखनऊ के वैज्ञानिकों का एक दल शीघ्र ही चमोली जिले के लिए रवाना होकर समूचे प्रभावित क्षेत्र का सर्वेक्षण करेगा। दल में सभी विधा के वैज्ञानिक शामिल हैं जो एक माह के भीतर अपनी आरंभिक रिपोर्ट सोपेंगे। माना जा रहा है कि कि इस प्रारंभिक अध्ययन के बाद ही इस प्राकृतिक भूगर्भीय आपदा के असल कारणों का पता चल सकेगा। इसके लिए रिमोट सेंसिंग तकनीक और फील्ड सर्वेक्षण की मदद ली जाएगी।

ग्लेशियर पिघलने से बढ़ रहा खतरा

पर्यावरणविद डॉ.भरत राज सिंह कहते हैं कि वैश्विक तापमान में ग्रीन हाउस गैस के बढ़ने से औसत वृद्धि 1.58 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़कर तीन डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक हो चुकी है। आर्कटिक बर्फीले समुद्र का ग्लेशियर 2012 तक 30 प्रतिशत पिघल गया था जो अब लगभग 60 प्रतिशत तक पिघल चुका है और लगभग 600 ट्रिलियन टन ग्लेशियर टूट चुका है। ग्लेशियर का तापमान उत्तरी ध्रुव पर लगभग़ माइनस 70-80 डिग्री सेंटीग्रेड तक और दक्षिणी ध्रुव पर माइनस 40-50 डिग्री सेंटीग्रेड तक है। वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी से इसके पिघलने में तेजी आ चुकी है। पहाड़ों पर ग्लेशियर का तापमान बर्फबारी से पड़ने वाली बर्फ से अधिक हो गया है जिसके चलते बर्फबारी में गिरने वाली बर्फ ग्लेशियर से चिपकती नहीं है। इससे हिमस्खलन की स॔भावना बढ़ जाती है और वह बर्फीले तूफान में बदल जाता है। यह स्थिति 2013 में भी आयी थी और यही मौजूदा त्रासदी में भी हुआ। डॉ.सिंह कहते हैं कि वर्ष 2012 में प्रकाशित शोध पत्र में मैंने इस बाबत आगाह किया था।


This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.