सूखा या होगी बरसात… गौर से सुनें घाघ की बात, आज भी सटीक और प्रासंगिक हैं लोक कवि घाघ की कहावतें
अंबेडकरनगर का एक गांव है निमदीपुर। बरात आ चुकी थी। घने बाग में ठहरे थे बराती। जेठ का महीना उतरने और आषाढ़ लगने को था। आसमान साफ था। बगल की एक पगडंडी से गुजरते बुजुर्गवार आसमान की ओर ताकते बुदबुदाते हैं- कहूं आन्हीं बउखा न आवै। आशय कि कहीं आंधी-पानी न आ जाए। पगडंडी से उनका ओझल होना था कि मौसम के तेवर बदल गए।
पवन तिवारी, लखनऊ। बात 1990 से 1995 के मध्य की है। अंबेडकरनगर का एक गांव है निमदीपुर। बरात आ चुकी थी। घने बाग में ठहरे थे बराती। जेठ का महीना उतरने और आषाढ़ लगने को था। आसमान साफ था। बगल की एक पगडंडी से गुजरते बुजुर्गवार आसमान की ओर ताकते बुदबुदाते हैं- 'कहूं आन्हीं बउखा न आवै।' आशय कि कहीं आंधी-पानी न आ जाए।
पगडंडी से उनका ओझल होना था कि मौसम के तेवर बदल गए। बादल पीले हो गए। धूल भरी आंधी चली। थोड़ी ही देर में बरात की साजसज्जा चौपट। सफेद शामियाना धूसर हो चुका था।
इस छोटे से दृष्टांत से प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर उन बुजुर्ग के पास ऐसा कौन सा उपकरण था, जिसके बूते अगले पल के मौसम का सटीक आकलन कर लिया। यह कोई उपकरण नहीं, अपितु उनका अनुभवजनित ज्ञान था जो लोक द्वारा प्रतिपादित व्यावहारिक विज्ञान से मिला।
अब जबकि तपिश से राहत की आस में मौसम विज्ञान विभाग के पूर्वानुमानों पर पल-पल सबकी दृष्टि है, कुछ लोकोक्तियां भी चौपालों पर स्मरण की जा रहीं। लोकजीवन को ज्ञान रस से भिगोता का है घाघ का काव्य रस। वर्षा जल पर आश्रित कृषि के संवर्द्धन-संरक्षण में ये कहावतें किसानों की हितैषी हैं।
खेतिहर कैसे जान पाते थे कि मेघ कब बरसेंगे? घाघ की यह कहावत देखें-‘भुईं लोट बहै पुरवाई, तौ जाना कि बरखा आई।’ अर्थ है कि पुरवाई अगर जमीन को स्पर्श करती, धूल उड़ाती बहे तो यह समझ लेना चाहिए कि बारिश होने वाली है।
अब यह जानें कि मानसून का मन कैसे भांपते हैं- ‘पहला पानी भरिगै ताल, अब काव कही बरखा कै हाल’। ‘घाघ कहैं हम होबै जोगी, कुआं के पानी से धोइहैं धोबी।’ अर्थ स्पष्ट है- पहली बारिश में ही अगर ताल-तलैया भर जाएं तब समझें कि सूखा पड़ेगा। ऐसा सूखा कि गृहस्थ को संन्यास लेने की नौबत आ जाएगी और धोबी को कुएं के पानी से कपड़े धोने पड़ेंगे। यानी तालाब-सरोवरों में उनके लिए पानी ही नहीं रहेगा।
बारिश के आकलन का ही घाघ का एक और सूत्र- ‘शुक्रवार को बादरी, रहे सनीचर छाय। कहें घाघ सुन घाघनी बिन बरसे ना जाए।’ शुक्रवार-शनिवार को बदली रही तो पानी बरसने में कोई संदेह नहीं होगा। नक्षत्रों का महत्व हमारी कृषि व्यवस्था में भी बहुत है। घाघ कहते हैं- 'आर्द्रा धान पुनर्वसु पइया, गै किसान जब लाग चिरैया।' कहने का मतलब है कि धान की रोपाई के लिए आर्द्रा नक्षत्र उपयुक्त है। ऐसी अनगिनत कहावतें हैं जो लोकजीवन में रची बसी हैं। 'आदि न बरसें आर्द्रा, हस्त न बरसे निदान, कहें घाघ सुन घाघनी, भए किसान पिसान।'
मतलब यह कि आर्द्रा नक्षत्र अगर शुरुआत में और हस्त नक्षत्र समाप्ति पर हो तो पानी न बरसे तो किसान समस्याओं में पिस जाता है। 'उत्तर चमकै बीजली, पूरब बहै जो बाव, घाघ कहें सुन घाघिनी बरधा भीतर लाव।' इसको ऐसे समझें कि उत्तर दिशा में बिजली चमके और पुरवाई बहे तो बैल अंदर बांध लें, यानी तेज बारिश होने वाली है।अयोध्या जनपद के बीकापुर के किसान और अधिवक्ता बृजेश तिवारी कहते हैं अंधेरे पाख (कृष्ण पक्ष) में अनाज भंडारित करने से उसमें घुन या कीड़े नहीं लगते। इसी तरह पछुआ हवा के समय ज्यादातर अनाज सुरक्षित किए जाते हैं जिससे उसमें नमी न आए।
लोक ने खेती-किसानी के जो नियम गढ़े हैं वे सटीक और अचूक होते हैं। प्रगतिशील किसान आनंद द्विवेदी की भी यही राय है। कहते हैं, ‘घाघ ने सोचा नहीं रहा होगा कि मनुष्य प्रकृति का दोहन करके वैश्विक तापमान इतना बढ़ा देगा। उनकी कहावतें आज भी खरी उतरती हैं।
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-टीबी सिंह, जिला कृषि अधिकारी, लखनऊ