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Mau News: अनदेखी से सिसक रहा साड़ी व कपड़ा कारोबार, कभी देश-विदेशों में था डंका; 2005 के दंगे ने भी तोड़ दी कमर

मुगलकाल से पुश्तैनी हुनर बन चुके कपड़ा व साड़ी कारोबार का मऊ की आर्थिक अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत योगदान है। बावजूद इसके अत्याधुनिक मशीनों के अभाव में यह कारोबार दम तोड़ रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हुनर में आनुवंशिक रूप से यहां के लोग बुनकरी में अव्वल हैं। यही कारण है कि मऊ की साड़ियों ने काफी दिनों तक देश-विदेश में अपना डंका बजाया। 2005 के दंगे ने...

By Jaiprakash Nishad Edited By: Riya Pandey Updated: Wed, 29 May 2024 01:57 PM (IST)
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अत्याधुनिक मशीनों की अभाव में दम तोड़ रहा साड़ी व कपड़ा कारोबार

जयप्रकाश निषाद, मऊ। मुगलकाल से पुश्तैनी हुनर बन चुके कपड़ा व साड़ी कारोबार का मऊ की आर्थिक अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत योगदान है। बावजूद इसके अत्याधुनिक मशीनों के अभाव में यह कारोबार दम तोड़ रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हुनर में आनुवंशिक रूप से यहां के लोग बुनकरी में अव्वल हैं। यही कारण है कि मऊ की साड़ियों ने काफी दिनों तक देश-विदेश में अपना डंका बजाया।

2005 के दंगे ने इसे और भी गहरे गड्ढे में धकेल दिया। हालात इस कदर बदले कि सैकड़ों लोग अपना लूम बेचकर अन्य धंधा अपनाने को विवश हो गए। हजारों की संख्या में बुनकर नौजवान खाड़ी देशों में पलायन को विवश हो गए हैं। रही सही, कसर 2020 में कोरोना संक्रमण ने पूरी कर दी।

बाद में सरकार की वन डिस्ट्रिक्ट-वन प्रोडक्ट की योजना कुछ मरहम लगाने का काम की, लेकिन उतना सार्थक नहीं हो सकी, जितना यहां के लोगों को उम्मीद थी। यही नहीं समय-समय पर बदल रहे सरकार के नियम-कानून ने भी उम्मीदों पर पानी फेरा। सरकार की अनदेखी भी इस कारोबार को पीछे धकेलने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। अब घोसी लोकसभा चुनाव में बुनकरों का यह मुद्दा काफी प्रभावी है। प्रत्याशियों के समक्ष मतदाता इस बात को उठा रहे हैं।

सूरत की सस्ती व चमकादार साड़ियों से घट गया क्रेज

वर्ष 1988 के पहले भले यह क्षेत्र मात्र एक कस्बा हुआ करता था। किंतु यहां के घर-घर में पारवरलूम चलने, नायलान व काटन मिश्रित बुनी जा रही साड़ियां पूरे देश में अलग पहचान बनाए हुए थी। यही नहीं आजमगढ़ जनपद के अंतर्गत आने वाले इस कस्बे के अलावा मुहम्मदाबाद व घोसी तहसील को भी बुनकर नगरी के रूप में पहचान मिली थी।

कुटीर उद्योग के रूप में पनपे इस धंधे के कारण ही यह कस्बा जनपद मुख्यालय के रूप में तब्दील हो गया। यहां की सस्ती एवं सस्ता और टिकाऊ साड़ियों की मांग सूबे के वाराणसी, कानपुर के अलावा मुंबई की मायानगरी में भी थी। यहीं नहीं अरब एवं खाड़ी देशों तक यहां की तनछुई साड़ियों की धमक हो गई थी। किंतु समय के साथ यहां की साड़ियों का बाजार एकदम ठंडा हो गया।

वर्ष 2010 के दौरान यहां की मऊवाली साड़ी सूरत, महाराष्ट्र व चेन्नई के आगे फीकी हो गई। आर्थिक उदारीकरण के दौर में यहां की साड़ियों की बिक्री ही नहीं हो रही है। यहां के मुकाबले सूरत की साड़ियां सस्ती एवं चमकदार होती थी। इसमें टैक्स वगैरह भी नहीं लगता है। यहीं नहीं सूरत में अत्याधुनिक बदलाव होते रहते हैं। ब्रांड भी बदलते रहते हैं। इसकी वजह से यहां की साड़ियों का दाम अधिक होता है।

बेबसी पर आंसू बहा रहे बुनकर

शहर सहित कोपागंज, अदरी, मुहम्मदाबाद, खैराबाद, घोसी व वलीदपुर के बुनकर अपने कारोबार को सहेज रहे हैं। मंदी के दौर चलने से यहां के घनी मुस्लिम बस्तियों में पावरलूमों की आवाज बिल्कुल बंद हो गई है। वह परिवार जिनकी बुनाई के धंधे में कई पीढ़ियां गुजर गई थी वे भी हताश हो गए थे। इसमें कई लोगों ने साड़ियों को नया कलेवर दिया। इसके बाद भी इनकी साड़ियां नहीं बिक रही थी।

फिर भी लोग कारोबार को चलाने के लिए नई-नई युक्ति निकाल रहे हैं। बावजूद इसे सूरत की साड़ियों के आगे इनकी मेहनत काम नहीं आ रही है। साड़ी कारोबार में मंदी की मार झेलने वाले बुनकर मजदूरों को मलाल है कि उनके बारे में कोई नहीं सोचता है।

मऊ में यह बनती हैं साड़ियां

मऊ में सिल्क, काटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनछुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी साड़ियां बनाई जाती हैं। इनका श्रीलंका, स्वीटजरलैंड, कनाडा, मारीशस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, नेपाल समेत दूसरे देशों में निर्यात भी होता है।

मऊ के नगर पालिका के पूर्व अध्यक्ष व बुनकर कारोबारी तैय्यब पालकी का कहना है कि दुश्वारियां झेल रहे मऊ के साड़ी उद्योग को अब तक ब्रांड एम्बेस्डर भी नसीब नहीं हो सका। मऊ में सिल्क से बने कपड़ों के लोग आज भी मुरीद हैं, पर खामी बस यह है कि दुनिया के बदलते मिजाज को वह अपनी ओर खींच नहीं पा रहा है।

इसका बड़ा कारण यह है सरकार ने हमारी साड़ियों को बचाने के लिए न तो प्रचार किया, न कोई ब्रांड एम्बेस्डर ढूंढा। जरूरत है बनारस के साड़ी उद्योग में जान फूंकने की। दुनिया भर में बनारसी बुनकारी का प्रचार करने की, अन्यथा पूर्वांचल के इस कारोबार को मिटने से कोई नहीं रोक सकता।

दशक पहले मऊ के बुनकरों के बनाए कपड़ों की देश में थी धूम

सूत कारोबारी दक्षिणटोला मऊ जवाहर मिश्रा के अनुसार, दशक पहले मऊ के बुनकरों के हाथों से बने कपड़ों की धूम पूरे पूर्वांचल के साथ ही साथ देश में लंबे समय तक रही, लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा और बढ़ती हुई महंगाई की मार से अब यह कारोबार बंदी की कगार पर खड़ा होता नजर आ रहा है।

महंगाई की मार से हथकरघा उद्योग पहले से ही बेहाल है। पावरलूम की खटपट का शोर धीमा पड़ने लगा है। पीढ़ियों से हुनरमंद हाथों से लिबास बुनने वाली यह जमात संसाधनों की कमी और सरकार की बेरुखी से तबाह होती दिख रही हैं।

खेदूपुरा मऊ साड़ी कारोबारी अबू फैसल के अनुसार, सरकार समय-समय पर नियम-कानून बदलती रहती है। अब सरकार सेमी कानून बनाई है। अगर उधार का 45 दिन के अंदर भुगतान नहीं किया गया तो जीएसटी में मूलधन का 30 प्रतिशत एड हो जाएगा। मऊ के लोग पढ़े-लिखे नहीं है। इसकी वजह से वह कानून नहीं समझ पाते हैं। इसकी वजह से बाहर साड़ियां ले जाने पर उनका नुकसान हो जाता है। यही नहीं डाई प्लांट, जकात प्लांट का अभाव है। फैशन के रफ्तार के अनुसार सूरत की साड़ियां हम पर भारी पड़ रही है। ऐसे में यहां बदलाव की जरूरत है।

साड़ी कारोबारी भरत थरड के अनुसार, नोटबंदी के बाद मंदी का दौर आया और वह अब तक नहीं कम हो सका। रही सही कसर जीएसटी और बाद में कोरोना महामारी ने पूरी कर दी है। सरकारी नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार को इस दिशा में पहल करने की जरूरत है। ताकि बुनकरों के कारोबार को बाजार मिल सके।

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