Swatantrata Ke Sarthi: अंतिम सांस तक लड़े, देश की आन पर बलिदान हो गए थे 21 सिख वीर योद्धा
मेरठ छावनी में बने देश के पहले सारागढ़ी मेमोरियल को वर्धमान एकेडमी के बच्चों ने देखा और उन 22 सिख वीर योद्धाओं के बलिदान को जाना जो देश की आन की खातिर अंतिम सांस तक लड़े और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इतिहासकार डा. अमित पाठक ने विद्यार्थियों को बताया कि सारागढ़ी में भारतीय सिख सपूतों के इस अभूतपूर्व वीरता और बलिदान को पहचान बहुत देर से मिली।
अमित तिवारी, मेरठ। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के घटनाक्रमों में क्रांतिकारियों के योगदान और बलिदान से नई पीढ़ी को अवगत कराने के लिए दैनिक जागरण की ओर से स्कूली विद्यार्थियों के लिए 'क्रांति भ्रमण' का आयोजन किया जा रहा है।
मंगलवार को वर्धमान एकेडमी रेलवे रोड के विद्यार्थियों ने मेरठ छावनी में बने देश के पहले सारागढ़ी मेमोरियल को देखा और उन 22 सिख वीर योद्धाओं के बलिदान को जाना जो देश की आन की खातिर अंतिम सांस तक लड़े और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
तोपखाना बाजार के निकट आर्टी ब्रिगेड परिसर में व्यवस्थित इस मेमोरियल में 36 सिख रेजिमेंट के उन 21 सिख सैनिकों की वीरता को नमन किया गया जिन्होंने मेरठ में शुरू हुई स्वतंत्रता क्रांति के 40 वर्ष बाद 12 सितंबर 1897 को पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में करीब 10 हजार अफगानों के समक्ष हथियार डालने की बजाय उनसे लड़े।
अंतिम सांस तक 600 से अधिक को मार गिराया। अफगान लड़ाके सारागढ़ी से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके थे। यूनाइटेड नेशंस की ओर से इस लड़ाई को दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ वीरता के प्रदर्शन वाले युद्धों में शामिल किया गया है।
देर से मिली बलिदान को पहचान
इतिहासकार डा. अमित पाठक ने विद्यार्थियों को बताया कि सारागढ़ी में भारतीय सिख सपूतों के इस अभूतपूर्व वीरता और बलिदान को पहचान बहुत देर से मिली। जिसे अंग्रेजों ने तो इतिहास के पन्नों में संजोया, लेकिन भारत में लोगों को देर से पता चला।
स्वतंत्रता के बाद मेरठ छावनी में आई सिख रेजिमेंटल सेंटर ने यह मेमोरियल बनवाया था। एक दिसंबर 1997 को सब-एरिया कमांडर ब्रिगेडियर एके सूद ने दो सिख रेजिमेंट की मदद से इसका जीर्णोद्धार कराया। 228 फील्ड रेजिमेंट द्वारा पुन: व्यवस्थित करने के बाद 19 अगस्त 2016 को 11 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जेएस चीमा ने पुन: सारागढ़ी के वीरों को समर्पित किया।
धर्म और सम्मान पर चोट का प्रतिकार थी क्रांति
डा. पाठक के अनुसार अंग्रेजी सेना में प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल भारतीय सैनिकों ने लौटकर अपना देश, गांव देखा तो अंग्रेजों के अत्याचार का एहसास हुआ। नौ मई 1857 को अंग्रेजी सेना की ओर से आयोजित अपमानित करने वाले परेड ने भारतीय सैनिकों का सब्र तोड़ दिया।
अपमान का घूंट गले में फंसा ही था कि देशवासियों के तानों ने 10 मई की शाम आई अंग्रेजों के आने की एक अफवाह के झोके को क्रांति में बदल दिया। यह पहली क्रांति थी जिसमें सैनिकों के पीछे आम शहरी, व्यापारी, किसान सब क्रांतिकारी बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़े थे।
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