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Chaudhary Ajit Singh के बुलावे पर एक मंच पर आ गए थे देवगौड़ा, नीतीश व शरद जैसे बड़े नेता, मोदी सरकार के खिलाफ फूंका था बिगुल

अजित सिंह ने विपक्षी दलों की स्वाभिमान रैली की तो देश के हर हिस्से से नेता यहां पहुंचे और उन्होंने मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होकर बिगुल फूंकने की शपथ ली थी। एक ही मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा जदयू नेता नीतीश कुमार शरद यादव आए थे।

By Himanshu DwivediEdited By: Updated: Fri, 07 May 2021 11:32 AM (IST)
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अजित सिंह ने मेरठ में विपक्ष को किया था एकजुट।
[रवि प्रकाश तिवारी] मेरठ। मेरठ में दिल्ली-देहरादून बाइपास किनारे गायत्री एस्टेट की जमीन तब खाली हुआ करती थी। एकाएक यह विपक्षी एकता की जमीन तय करने के सपने संजोने लगी। वजह थी, चौधरी अजित सिंह की अगुवाई में विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश। 12, तुगलक लेन का वर्षो पुराना सरकारी बंगला खाली कराना चौधरी अजित सिंह के साथ ही राष्ट्रीय लोकदल के तमाम कार्यकर्ताओं को भी नागवार गुजरा था। मोदी की लहर में तब सभी विपक्षी दल पहली बार निस्तेज साबित हुए थे। ऐसे में जब क्रांति भूमि से किसानों के नेता कहे जाने वाले चौ. चरण सिंह के वारिस अजित सिंह ने विपक्षी दलों की स्वाभिमान रैली की तो देश के हर हिस्से से नेता यहां पहुंचे और उन्होंने मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होकर बिगुल फूंकने की शपथ ली थी। एक ही मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, जदयू नेता नीतीश कुमार, शरद यादव व सपा से शिवपाल यादव, कांग्रेस से नसीब पठान और भाकियू नेता राकेश टिकैत भी जुटे थे।

विपक्षी दलों का एकजुटता की तस्वीर पहले भी संयुक्त मोर्चा, तीसरा मोर्चा के रूप में दिख चुकी थी, लेकिन वह सब चुनाव बाद सत्तासीन होने या सत्ता की धुरी बनने के लिए गठित होता रहा। पहली बार चुनाव में हार के बाद नए सिरे से भाजपा की खिलाफत में राजनीतिक विरोध-संघर्ष की खातिर कोई इस स्तर की सभा हुई थी। कुछ बड़े नेता जो नहीं पहुंचे, उन्होंने इस रैली को समर्थन दिया था। चौ. अजित सिंह की अगुवाई वाली इसी रैली ने चुनाव पूर्व विपक्षी एकता की ऊर्जा को भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करने का बढिया उदाहरण पेश किया था, जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनाया। अजित सिंह की तर्ज पर ही उत्तर से लेकर दक्षिण तक के राजनीतिक दलों को एक मंच पर जुटाया। दरअसल, ये वो प्रसंग हैं जो बताते हैं कि चौधरी अजित सिंह भारतीय राजनीति को ठीक से समझते थे। वे राजनीति की हवा के रूख को भांप भी जाते थे। चूंकि उनका दल पश्चिमी उप्र में था, लिहाजा महत्वपूर्ण कैबिनेट पद से लगातार सरकारों ने उन्हें नवाजा। तत्कालीन घटनाक्रम और उनके करीबी बताते हैं 2014 में भी वे भाजपा की लहर को भांप गए थे लेकिन भाजपा रालोद के विलय से कम में तैयार नहीं हुई और अजित सिंह अपने दल का अस्तित्व खत्म करने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे लिहाजा गठबंधन हो नहीं पाया था। तब से अजित सिंह विपक्ष की भूमिका में ही रहे।

यूपी में अभिनव प्रयोग की नींव अजित सिंह ने ही रखी थी

भाजपा की लहर में अपना सब कुछ खो चुके अजित सिंह ने 2018 के उपचुनाव में विपक्षी दलों के साथ एक ऐसा दांव खेला कि सूबे की राजनीति ही कुछ समय के लिए बदल गई। सपा के साथ मिलकर कैराना उपचुनाव लड़ा और तबस्सुम हसन को सांसद बना ले गए। 16वीं लोकसभा में वे उप्र से पहली मुस्लिम सांसद बन पायीं। कैराना उपचुनाव के परिणाम के बाद से ही चर्चा फिर शुरू हो गई कि 2013 मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से पश्चिम में पनपी मुस्लिम-जाट के बीच की खाई छोटे चौधरी ने पाट दी है। इतना ही नहीं, इस चुनाव में दो दलों के मेल से भाजपा का खेल बिगाड़ने के बाद बुआ व बबुआ यानी मायावती-अखिलेश 2019 में एक साथ चुनाव लड़े और शून्य पर जा सिमटी बसपा को 10 सांसद मिल गए। इसी चुनाव में विपक्षी एका की राह दिखाने वाले छोटे चौधरी व उनके बेटे जयंत के समर्थन में बसपा-कांग्रेस ने भी उम्मीदवार नहीं दिया। हालांकि पिता-पुत्र दोनों ही छोटे अंतर से चुनाव हार गए थे। 

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