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काली का कायाकल्प : घाट गवाह, कभी कल-कल करती थी काली Meerut News

हापुड़ में अंग्रेजों और बुलंदशहर में मुगलों द्वारा काली पर बनाए गए पुल गवाह हैं कि सौ बरस पहले तक काली का वैभव कितना बुलंद रहा होगा।

By Prem BhattEdited By: Updated: Sat, 30 Nov 2019 03:44 PM (IST)
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काली का कायाकल्प : घाट गवाह, कभी कल-कल करती थी काली Meerut News
मेरठ, [ रवि प्रकाश तिवारी]। काली संग यात्रा में मेरठ की सीमा पार हो गई, लेकिन काली की बदरंग तस्वीर में कोई फर्क नहीं। हां, हापुड़ में अंग्रेजों और बुलंदशहर में मुगलों द्वारा काली पर बनाए गए पुल गवाह हैं कि सौ बरस पहले तक काली का वैभव कितना बुलंद रहा होगा। दूसरी किस्त में जानते हैं हापुड़ और बुलंदशहर में काली का हाल-

कचरा समा रहा काली में

हापुड़ के हृदयपुर पहुंचते ही काली पर गंदगी का और बोझ लद जाता है। मोदीनगर से 27 औद्योगिक इकाईयों का कचरा लेकर आ रहा कादराबाद नाला और छोईया नाला भी यहां काली में समा जाता है। काला पानी और असहनीय बदबू, अहसास कराने के लिए काफी है कि काली का क्या हाल होगा। हां, मेरठ से एक बात अलग है यहां। काली में प्रवाह आ गया है। गंदगी ही सही, काली मंद-मंद बहने लगी। कुचेसर रोड पर कुछ दूर चलने के बाद अंग्रेजों के जमाने का एक पुल दिखता है। पुल में हैं तो पांच दरवाजे, लेकिन नदी अब बस इतनी भर रह गई है कि एक आउटलेट से ही निकल बढ़ती है। यानी काली अपने मूल स्वरूप की 20 फीसद से भी कम रह गई है।

यहां पर कभी बुलंद थी काली

अब हम बढ़ चले हैं बुलंदशहर की ओर। काले आम चौराहे से कुछ दूरी पर फिर काली से भेंट होती है। यहां इसकी पीड़ा और बढ़ी हुई है। काली यहां कितनी बुलंद नदी होती थी, उसपर बना पुल बता देता है। पुल के नीचे से नदी आसानी से गुजर जाए, इसकी खातिर यहां दो दर्जन दरवाजे बनाए गए थे। इनमें से कुछ अतिक्रमित हो चुके हैं। काली के किनारे बना चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियों वाला घाट हावड़ा ब्रिज के नीचे के आर्मिनियम स्ट्रीट घाट की याद ताजा कर देता है। बोनस के तौर पर यहां लाल पत्थर लगे, नक्काशी गढ़े गुंबदों की श्रृंखला भी है, लेकिन देखरेख के अभाव में पत्थर उखड़ने लगे हैं। इतनी शानदार व्यवस्था, लेकिन प्रशासन की अनदेखी और कुछ लोगों की मनमानी से सीढ़ियों पर गंदगी फैली है, घाट पर कीचड़। लोग यहां शौच करने लगे हैं। पुल के दूसरी ओर शहरभर का कूड़ा और मरे मवेशियों का ढेर काली का दम घोंटता है।

काली की कराह

पुल से अपनी धुन में गुजर रहे लोगों के पास क्षणभर का भी समय नहीं है कि वे विशाल घाटों के बीच से दुबली धार में सरकती काली पर निगाह डाल लें। हां, कुछ लोग पुल के बीच रुकते तो हैं, लेकिन.. पूजा-पाठ की सामग्री को नदी में विसर्जित करने के मकसद से। यहां मिले कुछ बुजुगोर्ं को याद तो है कि उन्होंने काली में तैराकी सीखी है, पार करने की बाजियां खेली और जीती हैं, लेकिन यह याद नहीं कि काली की यह दशा कब हो गई। इस अनुत्तरित सवाल के साथ बुलंदशहर में सिमटती काली के सुनहरे भविष्य की कामना में बढ़ चले हैं। फ्लाईओवर और चौड़ी सड़कों पर विकास का शोर है और इसी में काली की कराह दबती जा रही है।

काली को देखने के लिए उमड़ी भीड़

खतौली में झमाझम बारिश के बाद गांव अंतवाड़ा में काली नदी पानी से लबालब हो गई। शुक्रवार को सुबह से शाम तक नदी में पानी को देखने के लिए लोग पहुंचे। किसी ने नदी के पानी से अपने हाथों को धोया तो किसी ने माथे पर लगाकर नदी को नमन किया। नदी में पानी को देखने के लिए बड़ी संख्या में बच्चे अपने माता-पिता के साथ पहुंचे। मेरठ में एक पेट्रोल पंप के मैनेजर सतीश कुमार नैतिक पटेल, दशी पटेल, तनीषा व नव्या को लेकर नदी में पानी दिखाने पहुंचे। उन्होंने बताया कि वह अंतवाड़ा के निवासी हैं। बचपन में उन्होंने नदी में पानी देखा था, लेकिन बाद में इसका अस्तित्व समाप्त हो गया था। कई दशक बाद नदी में पानी देखकर वह खुश हैं।

तैरना सीखा है इस नदी में

बुलंदशहर में पुल के एक छोर पर खड़े शख्स काली नदी पर बातें करते हमें ध्यान से सुन रहे थे। अपना परिचय देते हुए बातचीत में वे भी शामिल हो गए और बताने लगे। मूल रूप से एमनपुर गांव निवासी ठाकुर नरेंद्र सिंह बोले कि लगभग 40 साल पहले की बात रही होगी। मैं 14-15 साल का था तो यहां खूब नहाता था। इसी घाट की सीढ़ियों से नदी में उतरते थे। तैरना मैंने यहीं सीखा।’ इतना कहकर वे ठहर गए।

1857 की क्रांति की गवाह भी है काली

प्रथम स्वाधीनता संग्राम की गवाह भी काली है। इसका प्रमाण मोहन कुटी है। बुलंदशहर में मोहन कुटी की भी अपनी मान्यता है। काली नदी के किनारे ही यह स्थान है। लोग बताते हैं कि 1857 की क्रांति के समय जिन्होंने अंग्रेजों को चुनौती दी और उनके खिलाफ बगावत की मशाल उठाई, उन्हें अंग्रेज मारकर नदी किनारे ही झुरमुठ, झाड़ियों में फेंक देते थे। यहीं एक बाबा रहते थे, उनका नाम मोहन था। क्रांतिकारियों, देशभक्तों के शवों का वे यहीं अंतिम संस्कार करते थे। मदन बाबा की स्मृति में ही यहां मदन कुटी स्थापित हो गई। आज लोगों के लिए यह श्रद्धा और पूजन स्थल के तौर पर स्थापित स्थान हो चुका है।

मुगलों के लिए यह अहम मार्ग था

काली नदी पर बना पुल और लाल पत्थरों की जुगलबंदी में नक्काशी वाले गुंबद मुगलकाल की याद दिलाते हैं। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मुगलों के बुलंदशहर का इलाका काफी अहम था। दिल्ली से बुलंदशहर के रास्ते ही वे अनूपशहर, संभल होते हुए अवध पहुंचते थे। बुलंदशहर में काली नदी अपने रौ में तब रही होगी। संभवत: इसी वजह से मुगलों ने काली नदी पर इतना बड़ा पुल बनवाया और पुल की भव्यता में गुंबद फिर घाट का निर्माण कराया।

मानव श्रृंखला बनाई, जागरूक कर रहे हैं

ऐसा नहीं है कि केवल नदी को नष्ट करने वाले ही हैं, बचाने वालों की भी कमी नहीं। ऐसे ही एक शख्स हैं राजीव राष्ट्रवादी। राजीव पेशे से शिक्षक हैं, लेकिन मौका निकालकर नदी सेवा में समय देते हैं। राजीव ने बताया कि काली को इस अवस्था से उबारने और जनजागरूकता के लिए उन्होंने राष्ट्रीय सेवा योजना, स्काउट गाइड, एनसीसी के बच्चों के साथ मानव श्रृंखला बनाई। बोले, नई पीढ़ी को समझाया जाए तो वे समझते हैं। लेकिन हमारी पीढ़ी ही सबकुछ बिगाड़ रही है। काली के किनारे-किनारे ही कुछ दूर साथ चले दिखाया कि किस तरह नगर पालिका का गंदा नाला शान से काली की धार में धार जोड़ रहा है। बोले, इसका इलाज होना पड़ेगा। मल-मूत्र सीधे नदी में आ रहा है, इस पर सख्ती करनी ही होगी। वे कहते हैं कि मानव दूषित न करे यदि तो साफ रहेगी सदा नदी। 

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