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मेरठ में श्रद्धा और समर्पण भाव से मनाया गया स्वामी विरजानन्द सरस्वती का स्मृति दिवस

मेरठ में स्वामी विरजानन्द सरस्वती का स्मृति दिवस मनाया गया। वक्‍ताओं ने कहा कि स्वामीजी दिव्य प्रतिभा के धनी थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने उन्हें व्याकरण का सूर्य कहा है। उनकी स्मरण शक्ति एवं मेधा बुद्धि अनुपम थी।

By Prem Dutt BhattEdited By: Updated: Mon, 04 Oct 2021 05:23 PM (IST)
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मेरठ में श्रद्धा और समर्पण भाव से मनाया स्वामी विरजानन्द सरस्वती का स्मृति दिवस

मेरठ, जागरण संवाददाता। केन्द्रीय आर्य सभा मेरठ के तत्वावधान में आर्य समाज मंदिर साकेत में महर्षि दयानन्द सरस्वती के गुरु व व्याकरण के सूर्य दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का 154वां स्मृति दिवस अत्यंत श्रद्धा एवं समर्पण भाव से मनाया गया।

देवयज्ञ से हुआ शुभारंभ

कार्यक्रम का शुभारंभ आचार्य दीपक शास्त्री के ब्रह्मत्व में देवयज्ञ से हुआ।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए राजेश सेठी ने कहा कि स्वामी विरजानन्द सरस्वती दिव्य प्रतिभा के धनी थे यद्यपि उनके भौतिक नेत्र नहीं थे परंतु उनके ज्ञान नेत्र में अलौकिक शक्ति थी, इसलिए उन्हें प्रज्ञाचक्षु कहा जाता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने उन्हें व्याकरण का सूर्य कहा है। उनकी स्मरण शक्ति एवं मेधा बुद्धि अनुपम थी। स्वामी दयानन्द को अपना योग्यतम शिष्य जानकर ही स्वामी विरजानन्द ने उन्हें संसार से अज्ञान अंधकार को दूर कर वैदिक धर्म प्रचार प्रसार का संकल्प दिलाया। यजमान यशपाल आर्य, गंगाराम सिंह व हरेंद्र सिंह रहे। प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक पंडित कुलदीप आर्य ने प्रभु नाम के अमृत रस का जो प्राणी पान करेगा, उसकी बुद्धि को निर्मल निश्चिय भगवान करेगा गाकर सभी श्रोताओं को भक्ति रस में सराबोर कर दिया। उन्होंने भजनों के माध्यम से गुरु शिष्य के मिलन का मार्मिक चित्रण किया।

पांच साल की उम्र में चली गई थी नेत्र ज्योति 

मुख्य वक्ता आचार्य पुनीत शास्त्री ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में बताया कि सन् 1778 में पंजाब के करतारपुर के गंगापुर में जन्में स्वामी विरजानन्द जी की नेत्र ज्योति पांच साल की उम्र में चेचक से चली गई थी। माता-पिता का 12 की आयु में देहांत हो जाने पर उन्होंने घर छोड़ कर दिया और ऋषिकेश आ गये। यहां गंगा में घंटों तक खड़े होकर गायत्री मंत्र का जप किया। स्वामी पूर्णानंद जी से सन्यास लेकर गंगा किनारे होते हुए गंगासागर तक पदयात्रा की। काशी में व्याकरण एवं दर्शन ग्रंथों की शिक्षा प्राप्त की। उनकी विद्वता एवं पांडित्य की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। अलवर के महाराजा विनय सिंह भी उनके शिष्य रहे। 

सन् 1860 में दयानन्द सरस्वती प्राप्त करने पहुंचे थे शिक्षा

सन 1860 में मथुरा में स्वामी दयानन्द सरस्वती उनसे शिक्षा प्राप्त करने पहुंचे। स्वामी जी ने उन्हें अपने कठोर अनुशासन में आर्य ग्रन्थों की शिक्षा दी तथा व्यकरण के गूढ़ रहस्यों की जानकारी दी, जिससे वह वेदों का सही भाष्य करने में सक्षम हुए।हम कभी भी उनके उपकारों से उऋण नहीं हो सकते। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। नेत्रहीन होते हुए भी वह रत्नों की पहचान रखते थे। शतरंज के कुशल खिलाड़ी थे। वीणा वादन में प्रवीण थे। स्पष्ट वक्ता थे। हम सभी को उनके जीवन से प्रेरणा लेकर सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। आर्य विद्वान डा. वेद प्रकाश ने कहा सभी को आर्यसमाज की उन्नति के लिए समर्पित हो कर कार्य करना चाहिए। आर्यसमाज साकेत के प्रधान हरवीर सिंह तालियान, संत प्रकाश त्यागी, कृष्ण लाल कुशवाह, राज पाल सिंह, अभिषेक पसरिचा, मनीष शर्मा, प्रीति सेठी, कैलाश सोनी, चंद्रकांत सुशील बंसल, दिनेश कक्कड़, सुनील आर्य, डाक्‍टर आरपी सिंह चौधरी, राजेश पसरिचा, गीता पसरिचा व कांता त्यागी आदि मौजूद रहे।