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नमामि विंध्‍यवासिनी मीरजापुर: आर्थिकी के गीत गाते हैं मीरजापुरी पत्थर, कलाकारी को देख मुंह से बरबस ही निकलता है, गीत गाया पत्थरों ने...

पिछले डेढ़ दो दशकों की बात करें तो चुनार की इस कला को कद्रदान भी खूब मिल रहे हैं। नए बन रहे भवनों को संवारने और भव्यता देने के लिए जालियां पिलर डोर फ्रेम विंडो फ्रेम आदि की डिमांड बढ़ी है और कारोबार भी लगातार बढ़ रहा है। हालांकि अब सरकार से अपेक्षा बढ़ी है कि इस कला को जीवित रखने के लिए चुनार या आसपास प्रशिक्षण संस्थान भी खुले।

By Jagran News Edited By: Nitesh Srivastava Updated: Sat, 09 Mar 2024 03:57 PM (IST)
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आर्थिकी के गीत गाते हैं मीरजापुरी पत्थर
जागरण संवाददाता, मीरजापुर। गीत गाया पत्थरों ने.... 1964 में बनी इस हिंदी फिल्म का शीर्षक जिले की प्रस्तर कला पर एकदम सटीक बैठता है। अहरौरा और चुनार के इन लचीले गुलाबी पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशी हो या फिर इन पत्थरों से बनी मूर्तियां सभी को देखकर ऐसा लगता है कि ये बेजान पत्थर बस अब बोल ही उठेंगे। इस कला से जुड़े कारीगर पत्थरों में जान डालने के लिए अपनी कला की जान लगा देते हैं।

2013 सारनाथ में स्थापित की गई करीब 80 फीट ऊंची भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी चुनार के देवनारायण पुजारी द्वारा बनवाई गई है। इसके साथ ही बोधगया में स्थापित बुद्ध प्रतिमा भी चुनार के ठाकुर एंड संस के अधिष्ठाता स्व. हरिमोहन दास ने बनवाई थी। चुनार के इन उत्पादों की नक्काशी भी यहां की प्रस्तर कला का बेमिसाल नमूना है। माना जाता है कि सबसे ऊंची 80 फीट की अशोक लाट संकीशा में स्थापित है, जिस पर हाथी स्थापित किया गया है।

पिछले डेढ़ दो दशकों की बात करें तो चुनार की इस कला को कद्रदान भी खूब मिल रहे हैं। नए बन रहे भवनों को संवारने और भव्यता देने के लिए जालियां, पिलर, डोर फ्रेम, विंडो फ्रेम आदि की डिमांड बढ़ी है और कारोबार भी लगातार बढ़ रहा है।

हालांकि, अब सरकार से अपेक्षा बढ़ी है कि इस कला को जीवित रखने और शिल्पियों को गढ़ने के लिए चुनार या आसपास उड़ीसा की तर्ज पर एक प्रशिक्षण संस्थान भी खोला जाए। साथ ही इस काम में लगे शिल्पियों को सरकारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएं।

करोड़ों का कारोबार, लगातार मिल रहा काम

पत्थर को छेनी हथौड़ी की चोट से खूबसूरती देने के काम में चुनार क्षेत्र के करीब 60 कारीगर लगे हुए हैं। काम के आधार पर इन्हें 500 से लेकर 800 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी मिल जाती है। प्रतिष्ठित कारोबारी देव नारायण पुजारी बताते हैं कि वर्तमान में यदि संपूर्ण व्यवसाय की बात करें तो चुनार में करीब 15 करोड़ वार्षिक का कारोबार हो रहा है।

आवश्यकता पड़ने पर काम को समय से पूरा करने के लिए स्थानीय कारीगरों के साथ साथ राजस्थान और उड़ीसा से भी कारीगर बुलाए जाते हैं। कारीगर गोपी बिंद का कहना है कि सरकार हमारे कौशल को विकसित करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करे। चुनार में प्रशिक्षण केंद्र खुले। पत्थर की धूल से होने वाले नुकसान पर स्वास्थ्य और जीवन बीमा दिया जाए।

धर्म प्रचार के लिए शिलाओं का निर्माण

चंद्रगुप्त मौर्य का काल और उसके बाद सम्राट अशोक के काल में कला संस्कृति की गतिविधियों का केंद्र चुनार रहा है। यहीं सम्राट अशोक के धर्म प्रचार के लिए शिलाओं का निर्माण होता था और पूरे विश्व में यहां प्रस्तर कला का उत्कृष्ट नमूना रहीं पत्थर की शिलाएं धर्म प्रचार के लिए भेजी जाती थीं।

किंवदंती है कि सुम्सुमारगिरि कहे जाने वाले चुनार में तत्समय भगवान बृद्ध ने आठवां वर्षा वास किया था। तभी से चुनार के पत्थरों को पवित्र माना जाता है। चुनार की प्रस्तर कला के लिए गुप्तकाल को स्वर्णिम युग माना जाता रहा है। वहीं बोधगया व सारनाथ में यहां के पत्थरों से तैयार भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाएं और उसके बेस पर की गई नक्काशी चुनार के हुनर को बयां करती हैं। इसके साथ ही विश्वनाथ धाम और नमो घाट की खूबसूरती को बढ़ाने चुनार क्षेत्र के पत्थर अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

हर दौर में मिला आयाम

नफासत और सूफियाना अंदाज के लिए मशहूर मुगलकाल में भी इस कला के कारीगरों की कारीगरी में भी महीन काम के साथ नफासत का प्रादुर्भाव हुआ। तत्कालीन शासकों एवं जमींदारों ने अपने घरों को आकर्षक लुक देने लिए पत्थर की जालियां एवं मेहराब आदि बनवाना प्रारंभ किया।

इसकी मांग बढ़ी तो चुनार क्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में इस पत्थर की महीन नक्काशी करने वाले कारीगर तैयार हो गए। रइसों का शौक था तो इससे जुड़े कारीगरों को मेहनताना भी अच्छा खासा मिलता था।

ब्रिटिश काल में पत्थरों का उपयोग

ब्रिटिश काल में चुनार के पत्थरों का उपयोग वास्तु के हिसाब से बिल्डिंग मैटीरियल के रूप में होने लगा। ब्रिटिश भवन शैली में यहां के लाल पत्थरों का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल हुआ। बड़े-बड़े महलों के मुख्य द्वारों पर पत्थर पर आकर्षक जालियां एवं मूर्तियों को कारीगरों ने उकेरना प्रारंभ कर दिया।

बंगलों की चहारदीवारी के खंभों व उसमें लगने वाली जालियों की अच्छी मांग रही। ब्रिटिश काल तक इस कार्य में लगे कारीगरों की स्थिति काफी अच्छी रही। कालांतर में बड़े बड़े मंदिरों के निर्माण के लिए चुनार की तुलसी एंड कंपनी, ठाकुर, ओरियंटल कंपनी, बंगाल स्टोन जैसी कुछ बड़ी फर्मो द्वारा चुनार के पत्थरों से मंदिर निर्माण का कार्य भी कराया जाता रहा जो बीच के समय में प्रायरू बंद हो गया।

1950 के बाद से शुरू हुआ गिरावट

इस कला में गिरावट का काल 1950 के बाद से प्रारंभ हुआ। आजादी के बाद बनाई गई खनन नीति के चलते प्रतिबंधों और कीमतों की अधिकता के कारण चुनार के पत्थरों की मांग लगभग समाप्त हो गई। काम न मिलने पर इस कला से जुड़े लोगों ने भी धीरे-धीरे जीविकोपार्जन के लिए अन्य काम शुरू कर दिए। आज इस कला के कारीगर बेहतर भविष्य न होने से चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

दो दशकों से बढ़ी है डिमांड

करीब दो दशक पूर्व यहां की प्रस्तर कला को उसके कद्रदान फिर से मिले तो इसमें जुड़े व्यवसायियों को काम मिलना शुरू हुआ। आज यहां देव नारायण पुजारी, रतीश दास, उपेंद्र गौड़, अंबिकेश्वर अग्रवाल, अजय कृष्ण अग्रवाल आदि कारखानेदार पुनः इस कला को जीवंत करने में जुटे हुए हैं। एक बार फिर पत्थर की जालियों, बड़ी-बड़ी मूर्तियों, मंदिरों आदि के निर्माण का काम इन लोगों के पास आने लगा है।

देव नारायण पुजारी के मुताबिक उन्होंने निर्यातकों के माध्यम से चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों में पत्थर की अशोक लाट, धर्मचक्र समेत आदि मूर्तियों की आपूर्ति की है। आर्डर की अधिकता के कारण कारीगरी के साथ साथ मशीनी तकनीक की उपयोग भी बढ़ा है और इन्होंने अपने यहां कंप्यूटर संचालित सीएनसी मशीन भी लगा ली है। इसके साथ ही अभी सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर, श्रावस्ती में भी बौद्ध स्तूप व मूर्ति बनाने के आर्डर उनके पास हैं। जिसके लिए चुनार और बाहर से बुलाए गए कारीगर काम कर रहे हैं।

नई तकनीक की अपेक्षा

इस कला के कारीगर चुनार के रामसकल, इंद्रजीत, सौरभ, ललित, शंकर, विकास, बबलू आदि का कहना है कि आज भी इस कला का आधार हाथ की कारीगरी है। यदि इसे बनाने में नई तकनीक का विकास हो और सरकार द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था कराई जाए तो शायद इसमें और लोग भी जुड़ सकें। इस काम में लगे लोगों को प्रतिदिन करीब आठ सौ रुपए तक प्रतिदिन मिल जाता है।

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