खुली किताब की तरह हैं जिगर मुरादाबादी, तांगे वाले की गुजारिश पर सुनाई थीं गजलें, यहां पढें और भी कई रोचक जानकारी
जिया ज़मीर ने कहा कि जिगर मुरादाबादी उन चंद सोच बदलने वाले शायरों में शामिल हैं जिन्होंने बीसवीं सदी में गजल के मेयार को गिरने नहीं दिया बल्कि उसको ज़ुबानो-बयान के नए जहानों की सैर भी करायी। उसे नए लहजे और नए रंग से चमकाया भी।
By Narendra KumarEdited By: Updated: Wed, 07 Apr 2021 11:35 AM (IST)
मुरादाबाद, जेएनएन। Sikander alias Jigar Moradabadi Birth Anniversary : जिगर मुरादाबादी रिवायती गजल के आख़िरी बड़े शायर हैं। लेकिन उनकी शायरी के आख़िरी दौर में कहीं-कहीं आधुनिकता के हल्के-हल्के रंग भी नज़र आने लगे थे। अगर जिगर साहब को दस बरस की जिंंदगी और शायरी अता हो जाती तो मुमकिन है कि जिगर साहब जदीद शायरी की बुनियाद रखने वाले शायरों में भी गिने जाते।
ये बातें जिगर मुरादाबादी की जयंती पर मुरादाबाद के युवा शायर एवं आलोचक जिया जमीर ने कही। अपनी इस बात के प्रमाण के रूप में जिया ने जिगर के ये शेर प्रस्तुत किए-डर है मुझको कि मेरी हैरानी
आईना उनके रूबरू न करेइश्क जब तक न कर चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होताकमाले-तिश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनीइसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैंजिया ज़मीर ने कहा कि जिगर मुरादाबादी उन चंद सोच बदलने वाले शायरों में शामिल हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी में गजल के मेयार को गिरने नहीं दिया, बल्कि उसको ज़ुबानो-बयान के नए जहानों की सैर भी करायी। उसे नए लहजे और नए रंग से चमकाया भी। जिगर साहब उर्दू शायरी का वो पहला नाम हैं जिन्हें किताब और स्टेज पर एक जैसी मकबूलियत ही नहीं महबूबियत भी हासिल हुई। आलम है कि उनके जैसा मकबूल शायर न उनसे पहले हुआ और न ही उनके बाद होगा। जिगर साहब के लिए इस दीवानगी का पहला सबब उनकी शख़्सियत के वो चमकदार रंग हैं जो चुंबक की तरह उनकी तरफ़ खिंचने को मजबूर कर देते हैं। उनकी शख़्सियत खुली किताब की तरह भी है, जिसे कोई भी किसी भी वक्त पढ़ सकता है। यह शख्सियत इतनी ख़ुद्दार भी है कि बड़ी रियासत के नवाब के बुलावे पर भी शेर सुनाने नहीं जाती और इतनी सादा भी है कि तांगे वाले की एक जरा सी गुजारिश पर पूरे रास्ते उसे गुनगुना कर कई-कई गजलेंं सुनाने को तैयार भी हो जाती है। शख़्सियत के इन अलग-अलग रंगों के अलावा जिगर साहब की शायरी में जो अनोखी बात है वो है उनके यहां हुस्न की अजमत है। जिगर साहब से पहले और उनके बाद इस सुपुर्दगी के साथ हुस्न की ऐसी तारीफ कहीं नजर नहीं आती। यह कहा जाता है जिगर जबरदस्त हुस्न-परस्त थे। मगर उन्होंने हुस्न को बेलिबास नहीं किया है बल्कि उसे पाकीज़गी की रिदा पहनाई है। देखिए-
रंगे-हया है ये तिरे जोशे-शबाब मेंया चांदनी का फूल खिला है गुलाब मेंआंखों में नूर जिस्म में बनकर वो जां रहेयानी हमीं में रह के वो हमसे निहां रहेरात क्या दिलकश अदा-ए-जलवा-ए-जानाना थीशम्अ जब रुख़ के मुक़ाबिल आई ख़ुद परवाना थी"अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ज़िया ज़मीर ने बताया कि जिगर साहब का इश्क उनकी आंखों से आगे का सफर करता हुआ बहुत कम दिखाई देता है। जिगर साहब सिर्फ देखना चाहते हैं, निहारना चाहते हैं। उनकी आंखें हुस्न का दीदार करते हुए नहीं थकतीं, हुस्न की तारीफ करते हुए नहीं थकतीं। उनका कमाल यह है कि उन्होंने अपने ख़्याल और बयान से हुस्न को इतना दीदा-ज़ेब और शाहकार बना दिया है कि हुस्न ख़ुद अपने आप से मुहब्बत के लिए तैयार हो जाता है। देखिए -
तसव्वुर में ये किसके जलवा-ए-मस्ताना आता हैकि हर आंसू लिए हमराह इक पैमाना आता हैतिरी मजनूं-अदाई से जिगर यह ख़ौफ़ आता हैकहीं ऐसा न हो उनको भी आलम-आशना कर देक्या देखेंगे हम जलवा-ए-महबूब कि हमसेदेखी न गई देखने वाले की नज़र भीजिगर साहब की शोहरत के बारे में विस्तार से बताते हुए ज़िया ज़मीर ने कहा कि जिगर साहब की शोहरतों का एक बहुत बड़ा सबब दिल की परतों को सहलाता हुआ उनका तरन्नुम था, जो जिस्म के तारों में जहां झंंकार पैदा करता था, वहीं शेर और शायर की कैफ़ियत भी सुनने वालों तक पूरी तरह पहुंचा देता था। उस तरन्नुम में जहां एक तरफ सरमस्ती थी, बला की नर्मी थी, वहीं हद-दर्जा दर्द भी था। वो दिलों को खींचने की ताक़त रखता था और हज़ारों के हुजूम को अपने साथ बहा ले जाता था। उस तरन्नुम में मसीहाई थी। मिसाल के तौर पर तरन्नुम में बहते हुए ये लाफ़ानी अशआर देखिए -
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार आ ही गयादिल कुछ इस सूरत से तड़पा उनको प्यार आ ही गयागुलशन परस्त हूं मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैंलाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दियाजिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया"आख़िर में जिगर साहब की शायरी के बारे एक अहम बात बताते हुए ज़िया ज़मीर ने कहा कि जिगर साहब के बारे में एक गलत राय बहुत मशहूर है कि जिगर केवल शराब और शबाब के शायर हैं। यह बिल्कुल ठीक है कि जिगर साहब के दौर में शायरी का सबसे नुमायां मौज़ू शबाब और शराब ही था। लेकिन इसके अलावा भी जिगर साहब की शायरी में बहुत कुछ है। उनके यहां इंसान की अज़मत भी है और इंसानियत के लिए फ़िक्र भी है। यही फ़िक्र उनसे अलग रंग के शेर भी कहला जाती है।
देखिए -आदमी आदमी से मिलता हैदिल मगर कम किसी से मिलता हैउनका जो फर्ज है वो अहले-सियासत जानेंमेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचेहमको मिटा सके ये जमाने में दम नहींहमसे जमाना ख़ुद है जमाने से हम नहींफिक्रे-जमील ख़्वाबे-परीशां है आजकलशायर नहीं है वो जो गजल-ख़्वां है आजकलयह भी पढ़ें :-
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