Riots in India दंगों की जड़ में सिर्फ़ आंतरिक कमज़ोरी ही नहीं बल्कि विदेशी ताक़तों का भी बड़ा हाथ है। उत्तर प्रदेश के पूर्व DGP डॉ. विक्रम सिंह ने दैनिक जागरण से ख़ास बातचीत में कई अहम मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखी। जानिए दंगों को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए और समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए।
राजस्थान का चितौड़गढ़ हो, महाराष्ट्र का भिवंडी हो, कर्नाटक का मांड्या हो या फिर उत्तर प्रदेश का बहराइच। अवसर गणेशोत्सव का हो या रामनवमी या फिर विजयादशमी का। हाल के दिनों में देश के कई शहरों में धार्मिक शोभायात्रा या विसर्जन के दौरान सांप्रदायिक तनाव और दंगे हुए। लोगों की जान गई। जनजीवन पूरी तरह से प्रभावित हुआ। सरकारी व निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचा। सामाजिक समरसता और भाईचारा खत्म हुआ। ये दंगे अचानक भड़के या प्रायोजित कराए गए? इनके पीछे विदेशी ताकतें तो काम नहीं कर रही हैं? राजनीतिक लाभ के लिए तो दंगे नहीं कराए जा रहे हैं? इस गंभीर मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ. विक्रम सिंह से दैनिक जागरण के गौतमबुद्ध नगर जिला प्रभारी अवनीश मिश्र ने विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश...
बार-बार दंगे क्यों होते हैं?
जिस तरह से आंतरिक कमजोरी की वजह से शरीर में बार-बार इंफेक्शन होते हैं, उसी तरह सुरक्षा-व्यवस्था में सामर्थ्य, स्फूर्ति और क्रियाशीलता एवं समस्या का मूल्यांकन करते हुए उसका निराकरण करने की कमी की वजह से बार-बार दंगे होते हैं।
कुछ ऐसे खास इलाके ही क्यों हैं जहां बार-बार दंगे होते हैं?
जहां दंगे का इतिहास रहा हो, जहां पर जनसंख्या को लेकर कुछ समस्याएं रही हों, जो क्षेत्र विवादग्रस्त रहे हों, उसको संवेदनशील कहते हैं। उत्तर प्रदेश में 17 जनपद संवेदनशील हैं। इन जनपदों को चिह्नित किया जाना चाहिए कि ये किन कारणों से संवेदनशील हैं? क्या कोई विवाद है? क्या पहले किसी तरह के मसले हुए हैं? क्या पहले कोई सांप्रदायिक घटना हुई हैं, जिसको लेकर आज भी तनाव विद्यमान है? कहीं-कहीं पर अगर आप एक-दूसरे को थप्पड़ मार दें तो कुछ नहीं होगा, लेकिन कहीं पर अगर हम जरा सा कह दें जय श्रीराम, वहां दंगा हो जाएगा। चाकू चल जाएगा। इसका क्या कारण है? अंग्रेजी में हम कहते हैं कम्युनल थ्रेसहोल्ड यानी सांप्रदायिक सहिष्णुता। जब सांप्रयादिक सहिष्णुता का स्तर बहुत निम्न हो जाता है तो बर्दाश्त करने का सामर्थ्य बहुत कम हो जाता है। यह काम पुलिस-प्रशासन का है कि वह सुनिश्चित करें कि तनाव बाहर आए। जो शिकायतें हैं, उनको दूर किया जाए। सुनिश्चित करें कि इस तरह का कोई घटनाक्रम न हों। यह शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है। शासन की मुट्ठी फौलाद की होनी चाहिए। उसके ऊपर मखमल चढ़ा होना चाहिए। शरीफों के लिए मखमल दिखाई पड़े। बवालियों के लिए मखमल उतार कर लोहे का पंजा बन जाए और उनको नेस्तनाबूद कर दे।
बहराइच में जो हुआ वह क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
दंगों में कुछ लोगों का स्वार्थ निहित होता है। वह लोग इससे लाभान्वित होते हैं। इसमें कुछ यूट्यूब चैनल, कुछ टीवी चैनल, कुछ समाचार पत्र, कुछ दान देने वाले, कुछ दान लेने वाले शामिल हैं। जाकिर नाइक जैसे लोग और कुछ राजनीतिक दल इससे लाभान्वित होते हैं। इनके लाभ समाप्त कर दीजिए। दंगों में 50 प्रतिशत कमी आ जाएगी।
बहराइच में मारे गए युवक के साथ जिस तरह की बर्बरता की गई है, वह दंगाइयों की किस मानसिकता का परिचायक है?
यह जिहादी मानसिकता का परिचायक है। प्रतिशोध की भावना भी है। मृतक ने जो किया वह भी उचित नहीं था, वह भी अपराध था। कोई अपराध करता है तो कानून के तहत उस पर कार्रवाई होनी चाहिए और कठोर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन प्लास से नाखून उखाड़ लेना, करंट लगाना समझ से परे है।
क्या बहराइच में जो हुआ उसे रोका जा सकता था?
पूरी तरीके से तो नहीं, लेकिन अगर दंगे के सौ प्वाइंट थे तो उसको 10 प्वाइंट तक सीमित कर सकते थे। 90 प्वाइंट बचा सकते थे। हर दंगा रोका नहीं जा सकता है, लेकिन दंगे से वैसे ही निपटना चाहिए जैसे सिगरेट के बट को जूते के नीचे रगड़कर बुझाया जाता है ताकि चिंगारी ऊपर नहीं आ सके। जो शरारती तत्व हैं, उन्होंने यदि एक करोड़ रुपया झोंक दिया बहराइच में और कहा कि यह करना है। वह तो फिर होना ही है, लेकिन वह होना है तो उसके बाद पुलिस को सौ सुनार की एक लोहार की वाली स्थिति करनी चाहिए। आपको जो करना था कर लिया। आपने धौंस दे दी। धौंस का जवाब अब देखिएगा।
क्या दंगे अचानक भड़कते हैं? या फिर पूर्व की घटनाओं के मद्देनजर इसके होने की आशंका में दोनों पक्ष पहले से तैयार रहते हैं?
नहीं। दंगे अचानक नहीं भड़कते हैं। दंगा होने से पहले एक वातावरण दिखाई देता है। सुबह निकलेंगे तो हवा में तनाव महसूस होगा। पुलिसिया भाषा में इसे कहते हैं कि आज हवा ठीक नहीं है। लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं होगी। राशन ज्यादा खरीदा जा रहा होगा। कर्फ्यू की तैयारी की जा रही होगी। इससे साफ है कि दंगे की तैयारियां पहले से हो जाती हैं। इस पर पुलिस अधिकारियों को तुरंत एक्शन मोड में आ जाना चाहिए। आंतरिक सुरक्षा योजना में स्कीमें बनी हैं। उन स्कीमों को लागू करना चाहिए। गश्त बढ़ाकर नाकेबंदी करनी चाहिए। वाच टावर व पिकेट लगाना चाहिए। कहीं कोई संदिग्ध दिखाई पड़े तो चेकिंग की जानी चाहिए।
क्या दंगे आजादी के बाद की परिघटना है या फिर इसका इतिहास भारत पर मुस्लिम शासन से शुरू होता है?
दंगों की श्रृंखला आज की नहीं है। जमाने से चली आ रही है। आजादी के पहले तो आए दिन दंगे होते थे। विशेषकर वर्ष 1942 के बाद। नोआखाली ले लीजिए या बंगाल में सुहरावर्दी की सीधी कार्रवाई। मोपला या केरल दंगा। 1861 का दंगा तो डाक्यूमेंटेड है। गणेश शंकर विद्यार्थी की कानपुर के बड़े दंगे में ही हत्या हुई थी।
क्या दंगे इसलिए नहीं रुक रहे हैं कि मुस्लिम पक्ष विजेता की मानसिकता से उबर नहीं पा रहा है?
किसकी क्या मानसिकता है, उसको वह मुबारक हो। शासन-प्रशासन किस दिन काम आएगा। एक व्यक्ति कहता है कि हत्या करना या बलात्कार करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो दवा की पुड़िया शासन-प्रशासन के पास है ही। इलाज तो शुरू कर दीजिए। लाल दवा से शुरू कीजिए। होम्योपैथी तक आइए। उसके बाद थोड़ा हल्का सा चीरा लगाइए, फिर बाइपास सर्जरी तक का तो इलाज है। रासुका व गैंगस्टर के अंतर्गत ऐतिहासिक कार्रवाई हो सकती है। शासन से कोई लड़ नहीं सकता है।
दोनों समुदायों के बीच खाई क्यों बढ़ती जा रही है?
इसका कारण है इंटरनेट मीडिया। भ्रामक प्रचार और उस प्रचार को निष्क्रिय करने के बारे में शासन की कोई ठोस नीति नहीं है। यूट्यूबर्स के ऊपर नियंत्रण, भड़काऊ बयान के ऊपर कार्रवाई। कुछ तो कार्रवाई होनी चाहिए। इंटरनेट मीडियो के आने से पहले यानी वर्ष 2010 के पहले इतनी भयावह स्थिति नहीं होती थी, जितनी अब हो रही है।
इस खाई को पाटने के लिए पुलिस और प्रशासन की क्या भूमिका हो सकती है?
पुलिस-प्रशासन को तकनीकी माध्यमों के सहारे ही नहीं रहना चाहिए। उन्हें अधिक से अधिक गणमान्य लोगों से मिलते रहना चाहिए। उनका एक समूह बनाकर रखना चाहिए ताकि सूचनाओं का आदान-प्रदान होता रहे। शांति समितियों में दोनों समुदायों में पकड़ रखने वाले लोगों को शामिल करना चाहिए। उनकी मदद से दोनों समुदाय को लोगों में पैठ बनानी चाहिए। पूर्व में 10 साल पहले हुए दंगों वाले स्थानों पर त्योहार व जुलूस के समय ऐसे लोगों को खड़ा रखना चाहिए ताकि भ्रामक सूचना आने पर आपस में समझ कर दूर किया जा सके।
दंगों के पीछे क्या कोई विशेष मानसिकता काम कर रही है?
निहित स्वार्थ की एक लाबी है और यह बहुत बड़ा व्यवसाय है। दंगा और दंगा होना यह बहुत बड़ा व्यवसाय है। यूट्यूबर्स और कुछ चैनेल्स की बन आती है। उनकी टीआरपी बढ़ जाती है। आपने देखा होगा कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा में दंगा हुआ था तो कहां-कहां से दान देने वाले चले आए थे। कहां-कहां से फरिश्तों का आगमन हो गया था। ये दंगे का एक बिजनेस माडल है। मेरा परामर्श होगा कि अनावश्यक रूप से बाहरी तत्वों के आवागमन पर प्रतिबंध होना चाहिए। अवांछनीय तत्व जो अफवाह फैलाते हैं, जो हिंसा भड़काते हैं, उनके ऊपर कहर बन के टूट पड़ें। यूपी में रासुका और यूपी गैंगस्टर एक्ट के रूप में दो सशक्त कानून हैं। उनका भरपूर प्रयोग करें। बिना दंड के राज्याधिकार नहीं चलता है।
क्या आपको ऐसा भी लगता है कि जो व्यवस्था है उसे बिगाड़ने में विदेशी ताकतें काम करती हैं?
क्यों नहीं? विदेशी शक्तियों का बहुत बड़ा योगदान है। अगर रोहिंग्या श्रीनगर, पुलवामा, भावनगर, मुंबई पहुंच सकता है तो आप समझ सकते हैं कि कौन सी शक्तियां हैं जो ऐसी ताकतों को हवा दे रही हैं। वहीं ताकतें जाकिर नाइक जैसे लोगों के पीछे हैं, जो कि भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। युवाओं को बरगला रहे हैं। हैदराबाद से आया एक व्यक्ति नोटों के थैले लेकर बनभूलपुरा में बांट रहा था, वह विदेशी शक्तियों का ही प्रसाद है। पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते तो आपने भी सुने होंगे। आपने यह भी सुना होगा कि केरल में हमास के डिप्टी लीडर की वीडियो कांफ्रेंसिंग कराई गई थी। हमास जिंदाबाद के नारे भी आपने सुने होंगे। आपका मतलब क्या है हमास से। आपका मतलब क्या है कि फिलिस्तीन से। बांग्लादेश में जो हो रहा है, उसके बारे में तो आपने एक शब्द नहीं कहा। रोहिंग्याओं के लिए चंदा उगाही कर रहे हैं। यहां विदेशी ताकतों का स्पष्ट आयाम दिखाई पड़ रहा है। हमें केंद्र सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं कि इस पर प्रभावी कार्रवाई होगी, लेकिन लुंजपुंज तरीके से ढुलमुल कार्रवाई हो रही है। विदेशी ताकतों की संलिप्तता के तीन उदाहरण दिए। पाकिस्तान जिंदाबाद, हमास जिंदाबाद, हमास के डिप्टी लीडर का वीडियो कांफ्रेंसिंग। इसका क्या मतलब है। पाकिस्तान के जिहादी मौलाना के बेटे की तस्वीर बरेली में लगाने का क्या मतलब है? इससे साबित होता है कि विदेशी ताकतें देश को बांटने के लिए काम कर रही हैं।
राजनीतिक हित के लिए भी क्या दंगे कराए जाते हैं?
दंगों से कुछ लोग लाभान्वित होते हैं। कुछ नेता राजनीतिक ध्रुवीकरण करते हैं और ये आज की बात नहीं है। यह पुलिस और प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह ऐसा न होने दे। हम लोग जब पुलिस की नौकरी में थे, तो कह देते थे कि आप में दम है तो दंगे करा दीजिए और अगर हममें दम होगा तो ऐसा कर देंगे कि यह आपका आखिरी दुष्प्रचार होगा। इसके बाद न तो चुनाव लड़ पाएंगे न जिंदा रहेंगे। मिट्टी में मिल जाएंगे।
धर्मगुरुओं की दंगे के दौरान क्या भूमिका रहती है और क्या होनी चाहिए?
धर्मगुरु केवल एक लाइन की अपील किया करें कि कानून का पालन करें। प्रशासन पर विश्वास करें। हम सब भाई-भाई हैं। इसके अलावा अगर विद्वता छांटने की कोशिश की कि हमारा धर्म हमें ये आज्ञा देता है कि हम ये कर सकते हैं और हम वो कर सकते हैं और अगर यह सब संवैधानिक नहीं है तो धर्मगुरु सलाखों के पीछे जाएं। संविधान से ऊपर न कोई धर्मगुरु है और न कोई और चीज है।
दंगों के बाद बनाए गए आयोगों की संस्तुतियों को किस रूप में देखते हैं?
2014 में मुजफ्फरनगर दंगा। 1980 में मुरादाबाद दंगा या मलियाना-हाशिमपुर दंगा, क्या आज तक किसी आयोग की रिपोर्ट पर कुछ कार्रवाई हुई है? आयोग बनाने का एक मकसद होता है। वह तात्कालिक होता है। दीर्घकालिक नहीं होता है। दंगे हुए। समितियां बनीं, सस्तुतियां आईं। रद्दी की टोकरी में गईं। हरियाणा में जाट दंगा हुआ। प्रकाश सिंह समिति बनी। प्रकाश सिंह ने कहा कि हमने संस्तुति की, लेकिन उसके पर एक फीसद पर भी कार्रवाई नहीं हुई।
दंगों को नियंत्रित करने की अल्पकालिक कार्ययोजना क्या हो?
पहले तो कोशिश हो कि दंगा हो न और यदि हो जाता है तो जो-जो जिम्मेदार हैं, उनको ऐसा रगड़ दीजिए कि लोग पूछें कि साहब यह जेल गए थे आखिर हुआ क्या। ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार सलाखों के पीछे हो।
दंगों की पुनरावृत्ति रोकने की दीर्घकालिक कार्ययोजना क्या हो?
आंतरिक सुरक्षा योजना का पूर्वाभ्यास, अपनी तैयारी, कर्मचारियों का प्रशिक्षण और उच्च कोटि की अभिसूचना। अभिसूचना पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। बतौर उदाहरण कहीं पर भी जन समागम होता है तो उसमें एक प्रतिशत पुलिस कर्मी होने ही चाहिए। सुंदरकांड का पाठ हो, अखंड रामायण हो, शुक्रवार की नमाज हो या कोई जमात हो, तो उसमें एक प्रतिशत पुलिसकर्मी होने ही चाहिए। उसकी रिपोर्टिंग होनी चाहिए। कहां क्या पक रहा है, इसकी रिपोर्टिंग होनी चाहिए। अंग्रेजों के जमाने में तो कोई बाहरी व्यक्ति दिख जाता था तो उसके आने के मकसद, ठहरने के स्थान व मिलने वालों का विवरण खंगाल लिया जाता था। वह कितने लोग थे, कहां ठहरे, कितनी देर रुके, किससे मिले, क्या पहने थे। आज पुलिस भगवान भरोसे हैं। आइपैड और मोबाइल के भरोसे है। उससे क्या सूचनाएं मिलेंगी।
इन सबके बीच समाज की भूमिका क्या भूमिका होनी चाहिए?
परिपक्वता। समाज को समझना होगा कि किसी भी दंगे से सिवाय अपराधी के किसी का भला नहीं हुआ है। इससे सिर्फ धूर्त प्रवृत्ति के राजनीतिक व्यक्ति व अपराधी ही लाभान्वित होते हैं। इनके खेल को समझें। देश को आगे बढ़ना है। शांति-व्यवस्था होगी, तभी आर्थिक विकास होगा। रोजगार आएंगे। सबका भला होगा।
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।