India Water Week Interview: जल संकट से बुरे हालात न बनें, अपनी गलत आदतों को बदलना होगा- वीके माधवन
India Water Week 2022 ऐसा नहीं है कि नदियों वाले देश भारत में पानी की कमी है सवाल यही है हम अपनी आदतों में सुधार करने को राजी नहीं हैं। पानी का मूल्य चुका रहे हैं तब कीमत समझ रहे हैं।
By Manu TyagiEdited By: GeetarjunUpdated: Sat, 05 Nov 2022 06:25 PM (IST)
नोएडा। ऐसा नहीं है कि नदियों वाले देश भारत में पानी की कमी है, सवाल यही है हम अपनी आदतों में सुधार करने को राजी नहीं हैं। पानी का मूल्य चुका रहे हैं तब कीमत समझ रहे हैं, लेकिन जल संचयन हमारा नैतिक कर्तव्य है, हमारा संस्कार है इसे हम भूलते जा रहे हैं। जल प्रबंधन की कमजोर नीति और नागरिक सामाजिक संस्थाओं के क्रियान्वयन ब्रिज को मजबूत करने की आवश्यकता है। एक से पांच नवंबर तक आयोजित हुए इंडिया वाटर वीक में वैचारिक चेतना का जो उद्वेग उठा है उसे धरातल तक लाया जाए इस संकल्प के साथ जल चिंतकों ने विदा ली है। इन्हीं चिंतकों में शामिल रहे अंतरराष्ट्रीय संस्था वाटरएड इंडिया के सीईओ वीके माधवन भी रहे। इस अवस पर उनसे मनु त्यागी की विशेष बातचीत की। उसके प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं:
वाटरएड: अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन है। जो पानी, स्वच्छता और स्वच्छता पर केंद्रित है। इसकी स्थापना 1981 में संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय पेयजल दशक (1981-1990) की प्रतिक्रिया के रूप में की गई थी। 34 देशों में सक्रिय यह संगठन वर्ष 1986 से भारत में भूजल दोहन, संचयन, संरक्षण पर लगातार सक्रियता से काम कर रहा है। वर्ष 2016 से वीके माधवन वाटरएड इंडिया के सीईओ हैं।1–नदियों वाला देश भारत आज जल संकट का सामना कर रहा है। इसकी मुख्य वजह क्या है?
हम आबादी के हिसाब से पानी के बेहिसाब उपभोक्ता बन गए हैं। जरूरते हैं भले वो कृषि के माध्यम से हैं। जनसंख्या के लिए हैं। शहर-गांवों में हों। नदियों में पानी आता है। वाटर शेड़ हैं वहां वृक्षारोपण हो वहां उसके ठहराव का प्राकृतिक अनुकूल पर्यावरण दें। मान लीजिए हम गंगा नदि की ही बात करें और उत्तराखंड के जो पहाड़ी क्षेत्र में वहां वृक्षारोपण कम हो जाए, उसकी देखरेख कमजोर पड़ जाए तो उसके आसपास के जो स्प्रिंग हैं वो सूख जाएंगे तो गंगा के पानी की मात्रा घटने लगेगी। कुछ पानी वर्षा के समय में नदियों में एकत्रित होता है।
इसी तरह भूजल का भी नदियों से एक अहम रिश्ता है। इसी तरह के कई और कारण हैं, दरअसल हम ये मानकर चलते हैं कि ये जो प्राकृतिक देन है वह सर्वविदित है। इसीलिए इसकी कदर नहीं करते। पहले जब व्यवस्थाएं कम थीं तो लोग ज्यादा कदर करते थे। संरक्षण, संचयन उनके संस्कार से जुड़ा रहता था। यदि हम भविष्य के लिए यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि जल संकट को लेकर बुरे हालात नहीं देखने पड़ें तो अपनी जल बर्बादी जैसी बुरी आदतों को आज से ही बदलना होगा। सिर्फ सरकार पानी का संरक्षण करेगी इस प्रवृत्ति से जितनी जल्दी हो निकलना होगा।
2- लोग जिम्मेदारी नहीं समझ पा रहे हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? कितनी संस्था और संगठन हैं, सरकार है सब काम कर रहे हैं तो उसका प्रभाव कहां हो रहा है?पहली चीज तो ये है कि किसी को जिम्मेदार ठहराने का विषय नहीं है। क्योंकि इसके पीछे दो-तीन कारण हैं। पूर्व में जब लोगों को पानी की अपनी व्यवस्था करनी होती थी तो प्राकृतिक संसाधन उनके अपने थे। लेकिन पांच-छह दशक से लोगों ने अपनी ये जिम्मेदारी छोड़ दी है। उनके दिमाग में ये बात बैठ गई है कि जल स्रोतों का संरक्षण हमारी जिम्मेदारी नहीं है। प्रकृति से रिश्ता तोड़ने पर खुद ही आमादा हो गए हैं। जो पहले सामुदायिक जिम्मेदारी थी अब उसे सिर्फ सरकारी मान लिया गया है। ये रिश्ता बदलना भारी पड़ रहा है। मेरे ख्याल से हम जल का सही मूल्य समझने में विफल हैं। और मनुष्य जैसा स्वभाव से होता जा रहा है जब किसी की कीमत अदा करता है तभी उसका मूल्य समझता है। वही स्थिति पानी को लेकर भी हो गई है। जब आप एक लीटर पानी की बोतल खरीदकर पीते हैं तो वो खाली बोतल ही इधर-उधर कूड़ा बढ़ाती नजर आएगी। लेकिन एक टंकी भी कहीं खुली होगी या पानी कहीं रिस रहा होगा तो आप नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए उसे सही नहीं करेंगे।
3-कहीं पानी बहुत ज्यादा है तो कहीं बहुत कम? ये असंतुलन क्यों? शहरीकरण की दिशा में देखें तो पानी की पहुंच और पानी तक पहुंच को लेकर भी बहुत असमानता हैं कुछ लोगों को ज्यादा पानी मिलता है, ये असंतुलन भी बहुत भारी पड़ रहा है। जब तक लोगों को ये समझ नहीं आएगा कि आपके हाथ में ये एक गिलास पानी है, ये कितनी मेहनत और प्रक्रियाओं के बाद घर बैठे आप तक पहुंच रहा है तब तक ये असंतुलन की खायी भी कम नहीं होगी। कहीं भोर से ही कतार दिखेगी, तो कहीं कार धोने में पानी की बर्बादी होती दिखेगी।
4-वर्षा जल संचयन के माध्यम से हम आने वाली पीढ़ी को जल संकट से बचा पाएंगे? पानी के संरक्षण को लेकर शहरी और ग्रामीण दृष्टि में अलग देखने की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जगहों पर छोटे-छोटे पानी के स्रोत थे, तालाब, जोहड़ छोटे से आकार में कच्चे क्षेत्र में संरक्षित करके रखते थे। इन स्रोतों की अहम भूमिका होती थी। ये सिर्फ संरक्षण या जल स्रोत तक सीमित नहीं होते थे या हैं। ये अहम भूमिका आपदा के समय में भी निभाते हैं। वर्ष 2015 में जब चेन्नई में बाढ़ आई तो उसके बाद लोगों में समझ बढ़ी की पहले वहां कभी तालाब, टैंक खूब हुआ करते थे। अचानक तेज वर्षा, बाढ़ जैसे हालात होने पर इन स्रोतों में ही तो पानी एकत्रित होता था। लेकिन अब तो इनके बहाव के लिए बनी नालियों से लेकर इन स्रोतों तक को पाट दिया गया है। इन्हें बचाने की आवश्यकता है। अहमियत, जरूरत समझेंगे तभी संभव है। आज भले गांव कस्बा और शहर बनते जा रहे हैं लेकिन जहां कुआं है उसमें भले पानी नहीं है, लेकिन हम उसमें वर्षा का पानी तो संजो सकते हैं उसके आसपास के क्षेत्र को उससे जोड़ा जा सकता है। अब बात शहरों की तो यहां तो हम कहते हैं न गले तक सिर्फ विकास से उसे भर दिया है। जरूरत है। लेकिन शहरों का नियोजन जिस तरह से किया जा रहा है कि मामूली सी वर्षा होते ही सड़कें तालाब बनी नजर आती हैं ये खतरे की घंटी है। उससे यही संकेत मिलने लगे हैं कि जल्द से पानी को अपने से दूर कर दें। यदि हम ये सोच बैठे हैं, इसका ही इंतजार कर रहे हैं कि कानून बने और जल संचयन नहीं करने पर, सड़कों पर पानी भरने पर कड़ी कार्रवाई हो तभी सुधरेंगे तो यह रवैया अगली पीढ़ी को खतरे में डालने वाला है।
5- वर्तमान में अमृत सरोवर योजना चल रही है, इस पर क्या कहेंगे, सीमेंट के ढांचे खींच दिए जा रहे हैं? संरक्षण के सपने को साकार कर पाएगी?देखिए इसे इस दृष्टि से देखा जाए कि हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि कम से कम एक प्रयास तो हुआ। जिस मसले पर ध्यान नहीं था, वहां शुरुआत तो हुई। अब रही बात इसके क्रियान्वयन की तो अलग-अलग राज्यों में इस पर अलग नजरिए से काम किया जा रहा है। कुछ िजले, राज्यों में जहां पहले जल स्रोत तालाब थे उसी को जीवित करने के लिए काम किया जा रहा है। उसके आसपास हरियाली बढ़ा दे रहे हैं एक तालाब का वातावरण आसपास संजोया जा रहा है। अब संरक्षण करने वाले सोचने लगे हैं कि इसे चारों तरफ से ईंट सीमेंट से पक्का कर देंगे तो लंबे समय तक संरक्षण हो जाएगा। अलग-अलग परिस्थिति से ये नियोजन तो किया जा रहा है लेकिन इसमें हम वहां के लोगों को जोड़ेंगे, उस परिस्थिति में रह रहे समुदाय को जोड़ेंगे तो वो बताएगा न कि इस क्षेत्र में पहले कहां जल स्रोत था, उसे कैसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। इससे लिए कहीं से विशेषज्ञ लाने की आवश्यकता नहीं है, हर गांव में एक क्या कई ऐसे व्यक्ति मिल जाएंगे जिन्हें उस जगह की माटी से लेकर पानी तक की पूरी समझ होती है। तब ऐसे पक्के तालाब नहीं बनाते, हां, आज भी खरे हैं तालाब जरूर बनेंगे।
6-अभी हम पानी के दोबारा प्रयोग करने पर संकोच करते हैं?मुझे आश्चर्य होता है, रियूज में संकोच कैसा। आप ये देखें हर चीज को रिसाइकिल करते हैं। हर चीज का पुन: उपयोग होता रहता है। घर-परिवार में ही देखें। भले वो कपड़े-जूते हों। ये कोई अनूठा या कहीं किसी दूसरे देश से आयात किया हुआ कांसेप्ट नहीं है। उद्योग और कृषि क्षेत्र में तो कितने बड़े पैमाने पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन हम इस जिम्मेदारी को ही नहीं समझते। आज शहरों में हर घर में आपको आरओ लगा मिलेगा, उससे निकलने वाले पानी को दोबारा प्रयोग करने में दिक्कत क्या है? आप क्यों नहीं उसे पौधों में डाल सकते? उससे क्यों नहीं फर्श धोते हैं, पोछा लगाते हैं। आदतें तो बदलनी पड़ेंगी, वर्ना संकट हम खुद बढ़ा रहे हैं। आज कई देशों में ट्रीट वाटर को पीने में प्रयोग किया जा रहा है। जल जीवन मिशन का उदाहरण ले लीजिए। उसकी प्रक्रिया के हिसाब से 70 प्रतिशत तक वेस्ट के लिए निकलने वाला है और उसका रियूज हो जाए तो पीने के पानी को ट्रीट करके पीना पड़े इसकी न्योबत ही नहीं आएगी। देखिए, इस देश में पानी की किल्लत नहीं है, उसका प्रबंधन नहीं कर पा रहे हैं। ठीक बंटवारा नहीं कर पा रहे हैं।
7-तो प्रबंधन कौन करेगा? लोग खुद कैसे तय कर लें इतना पानी आपका, इतना मेरा? इसके लिए तो सिस्टम चाहिए?यथा संभव इसे विकेंद्रीकृत करिए। जहां जल स्रोत हैं। भूजल भी ठीकठाक है। अब उनके ऊपर जिम्मेदारी सौंप दीजिए। उपभोग भी करना है और संरक्षण भी। आप उन पर क्यों नहीं छोड़ रहे। जिम्मेदारियां तय भी थीं। गांवों में पंचायतों की भूमिका यह बहुत अहम हिस्सा था। लेकिन आपको उन पर विश्वास तो करना पड़ेगा। एक बना बनाया ढांचा है, विश्वास के अभाव में उसे संचालित नहीं किया जा रहा। जहां कमियां हैं उन्हें दूर कर इस व्यवस्था को करना चाहिए। जिन पंचायतों में जागरूकता का अभाव है उन्हें शिक्षित करके वहां लागू कराना चाहिए।
8-अब बात करते हैं जल संचयन में नागरिक समाज संस्थाओं की, इनकी भूमिका पर निष्पक्षता से बताइए?इनकी भूमिका तीन तरह से कुछ संघर्ष के लिए काम करते हैं। कुछ सेवा भाव से और तीसरे विकास की भूमिका में। इन्हीं दायित्व को पूरा करें। लेकिन कहीं न कहीं लोगों की जरूरत के समाज के साथ संदेह पैदा हो गया है। संस्थाओं के प्रति एक आम धारणा बन गई है। और संस्थाओं ने इसे बदलने के लिए कोई ठोस प्रयास भी नहीं किए। या जो ये संस्था काम कर रही हैं वो बड़े मास के बीच नहीं पहुंच रहा है।9-संघर्ष, सेवा और विकास यदि ये इन तीनों ही स्तर पर दायित्व निभा रहे होते तो क्या ये धारणा बनती? तो आपका क्या कहना है कि ये संस्था काम नहीं कर रही हैं?10-लेकिन फिर भी सवाल क्यों उठ रहे हैं? उस धारणा को क्यों नहीं तोड़ा जा रहा? हां, ये नागरिक समाज संस्थाओं की कमी है, खुद की कमियों में सुधार नहीं करना और अपने क्रियान्वयन की प्रक्रिया में जरूरतों के हिसाब से बदलाव नहीं करना भविष्य के लिए अलर्ट जरूर है।
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