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'दुष्कर्म के केस में पुरुष हमेशा गलत नहीं', इलाहाबाद हाई कोर्ट की अहम ट‍िप्‍पणी; आरोपी को क‍िया बरी

महिला ने वर्ष 2019 में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि आरोपित ने शादी का वादा कर उससे शारीरिक संबंध बनाए लेकिन बाद में मुकर गया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि यौन उत्पीड़न जैसे मामलों में कानून तो महिलाओं का पक्षधर है लेक‍िन इसका यह मतलब नहीं है कि हमेशा पुरुष ही गलत हो। महिला की भी गलती हो सकती है।

By Jagran News Edited By: Vinay Saxena Updated: Fri, 14 Jun 2024 08:06 AM (IST)
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न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी और न्यायमूर्ति नंद प्रभा शुक्ला की खंडपीठ ने की ट‍िप्‍पणी।

विधि संवाददाता, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि यौन उत्पीड़न जैसे मामलों में कानून तो महिलाओं का पक्षधर है, लेक‍िन इसका यह मतलब नहीं है कि हमेशा पुरुष ही गलत हो। महिला की भी गलती हो सकती है। न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी और न्यायमूर्ति नंद प्रभा शुक्ला की खंडपीठ ने दुष्कर्म के आरोपी को बरी करने के सत्र अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की।

एक महिला ने शादी का झांसा देकर पांच साल तक शारीरिक संबंध बनाने का आरोप लगाते हुए एससीएसटी एक्ट के तहत मुकदमा कराया था। हाई कोर्ट ने कहा कि केस में निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए परिस्थितियों का आकलन हमेशा महत्वपूर्ण होता है। कोर्ट ने कहा कि सबूत पेश करने की जिम्मेदारी सिर्फ आरोपी की ही नहीं है, बल्कि शिकायतकर्ता की भी है। इसमें कोई शक नहीं है कि यौन अपराधों में महिला/लड़की की गरिमा और सम्मान की रक्षा को प्रमुखता देते हुए कानून तो महिला केंद्रित हैं। ये जरूरी भी हैं, लेकिन परिस्थितियों का आकलन भी जरूरी है। हर बार ये जरूरी नहीं कि पुरुष ही गलत हो।

महिला ने वर्ष 2019 में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि आरोपित ने शादी का वादा कर उससे शारीरिक संबंध बनाए, लेकिन बाद में मुकर गया। इतना ही नहीं उसकी जाति को लेकर अपमानजनक बातें कही। आरोपित के खिलाफ 2020 में चार्जशीट दाखिल की गई। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने आरोपित को दुष्कर्म के आरोपों से बरी कर दिया था और सिर्फ आईपीसी की धारा 323 का दोषी ठहराया। महिला ने इसे हाई कोर्ट में चुनौती दी।

आरोपित का कहना था कि महिला से उसके संबंध सहमति से थे। उसने खुद को ‘यादव’ जाति का बताया था, लेकिन जाति कुछ और थी। जिसके बाद उसने शादी से मना कर दिया। कोर्ट ने रिकॉर्ड के आधार पर पाया कि महिला ने वर्ष 2010 में विवाह किया था, लेकिन दो वर्ष बाद ही वह अपने पति से अलग हो गई थी। दोनों का तलाक नहीं हुआ था। कोर्ट ने कहा कि परिस्थितियों के मुताबिक, इस बात की संभावना कम है कि आरोपित ने महिला को शादी के झूठे वादे में फंसाया हो। दूसरी बात ये है कि महिला पहले से ही विवाहित थी और उसका विवाह अब भी कानून की नजर में मौजूद है। ऐसे में शादी का वादा करने का आरोप अपने आप खत्म हो जाता है।

कोर्ट ने कहा कि समाज में किसी भी रिश्ते को स्थायित्व देने में दोनों पक्षों के जाति की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह साफ है कि महिला ने अपनी जाति छिपाई थी। वह शादीशुदा थी और पिछली शादी खत्म किए बिना किसी आपत्ति वह पांच वर्ष तक आरोपित से संबंध बनाए रखती है। दोनों ने इलाहाबाद, लखनऊ के कई होटलों और लॉज में दिन गुजारे। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि कौन किसे बेवकूफ बना रहा था, इसलिए यौन उत्पीड़न या दुष्कर्म का मामला सही नहीं लगता।

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