सपा विधायक रफीक के खिलाफ सौ से ज्यादा वारंट, नहीं हुए पेश!, हाई कोर्ट ने 'खतरनाक मिसाल' बता खारिज की याचिका
35-40 अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ सितंबर 1995 में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। जिस पर संबंधित अदालत ने अगस्त 1997 में संज्ञान लिया। रफीक अदालत में पेश नहीं हुए इसलिए 12 दिसंबर 1997 को गैर-जमानती वारंट जारी किया गया। बार-बार गैर-जमानती वारंट (जिसकी संख्या 101 है) और धारा 82 सीआरपीसी के तहत कुर्की प्रक्रिया के बावजूद वह अदालत में पेश नहीं हुए और हाई कोर्ट आ गए।
विधि संवाददाता, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मेरठ के सपा विधायक रफीक अंसारी को कोई राहत देने से इन्कार करते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी है। विधायक ने कोर्ट से जारी गैर जमानती वारंट (एनबीडब्ल्यू) को चुनौती दी थी।
कोर्ट ने कहा, सपा विधायक के खिलाफ 1997 से 2015 के बीच 100 से अधिक गैर-जमानती वारंट जारी किए गए, किंतु वह अदालत में पेश नहीं हो सके और वारंट रद कराने हाई कोर्ट आ गए। न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने याचिका की सुनवाई करते हुए कहा, ‘मौजूदा विधायक के खिलाफ गैर-जमानती वारंट का निष्पादन न करना और उन्हें विधानसभा सत्र में भाग लेने की अनुमति देना खतरनाक और गंभीर मिसाल कायम करता है।’
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कोर्ट ने कहा, गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों को कानूनी जवाबदेही से बचने की अनुमति देकर हम ‘कानून के शासन के प्रति दंडमुक्ति और अनादर की संस्कृति कायम रखने का जोखिम उठाते हैं।’ याचिका में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, एमपी/एमएलए, मेरठ की अदालत से आइपीसी की धारा 147, 436 और 427 के तहत विचाराधीन आपराधिक केस में जारी वारंट को चुनौती दी गई थी।
मुकदमे के तथ्यों के अनुसार 35-40 अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ सितंबर 1995 में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। जांच पूरी होने के बाद 22 आरोपियों के खिलाफ पहला आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया। उसके बाद याची के खिलाफ एक पूरक आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया, जिस पर संबंधित अदालत ने अगस्त 1997 में संज्ञान लिया।
रफीक अदालत में पेश नहीं हुए, इसलिए 12 दिसंबर, 1997 को गैर-जमानती वारंट जारी किया गया। बार-बार गैर-जमानती वारंट (जिसकी संख्या 101 है) और धारा 82 सीआरपीसी के तहत कुर्की प्रक्रिया के बावजूद वह अदालत में पेश नहीं हुए और हाई कोर्ट आ गए।
इसे भी पढ़ें- चुनावी मोर्चे पर डटी सियासी 'शक्ति', इन दोनों लोकसभा सीट पर महिलाएं देती हैं कड़ी टक्करयहां उनके वकील ने तर्क दिया कि मामले में मूल रूप से आरोपित 22 आरोपियों को 15 मई, 1997 के फैसले में बरी कर दिया गया। इसलिए उनके खिलाफ केस कार्रवाई रद करनी चाहिए। कोर्ट ने कहा, किसी भी आरोपित के खिलाफ आपराधिक मुकदमे में दर्ज सुबूत केवल उस आरोपित की दोषिता तक ही सीमित हैं। इसका सह-आरोपित पर असर नहीं पड़ता है।
कोर्ट ने टिप्पणी की, ‘वह अपनी आंखें बंद कर मूकदर्शक बनी नहीं रह सकती।’ मौजूदा विधायक के खिलाफ गैर-जमानती वारंट का निष्पादन न करना और उन्हें विधानसभा सत्र में भाग लेने की अनुमति देना खतरनाक और गंभीर मिसाल कायम करता है, जो निर्वाचित प्रतिनिधियों में जनता के विश्वास को खत्म करते हुए राज्य मशीनरी व न्यायिक प्रणाली की अखंडता कमजोर करता है।
यह जरूरी है कि निर्वाचित अधिकारी नैतिक आचरण और जवाबदेही के उच्चतम मानकों को बनाए रखें। ऐसा न हो कि वे जनता की भलाई की सेवा करने के अपने जनादेश के साथ विश्वासघात करें।अदालत ने निर्देश दिया कि उसके आदेश की प्रति विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष जानकारी के लिए रखने के लिए विधानसभा के प्रमुख सचिव को भेजी जाए। पुलिस महानिदेशक को भी यह निर्देश दिया कि वह अंसारी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा पहले ही जारी किए गए गैर-जमानती वारंट की तामील सुनिश्चित करें।
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