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Kargil Vijay Diwas: घायल होने के बाद भी मोर्चे पर डटे रहे रमेश, दुश्मन सेना को खदेड़ा था पीछे

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल अशफाक उल्‍लां खां और ठाकुर रोशन सिंह जैसे क्रांतिकारियों की धरती शाहजहांपुर के काबिलपुर गांव निवासी चतुरी लाल-सुशीला की तीन संतानों में रमेशचंद्रदूसरे नंबर पर थे। 2 अक्टूबर 1971 में जन्मे रमेश चंद्र के अंदर बचपन से ही सेना में भर्ती होकर देश सेवा करने का जज्बा था। सेना में भर्ती होने के समय मातृभूमि की रक्षा का जो संकल्प लिया था उसे भी पूरा किया।

By Jagran News Edited By: Vivek Shukla Updated: Wed, 24 Jul 2024 09:56 AM (IST)
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शाहजहांपुर के एक पार्क में लगी अमर बलिदानी रमेश चंद्र की प्रतिमा। जागरण
 जागरण संवाददाता, शाहजहांपुर। कारिगल की पहाड़ियों पर भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई के आगे दुश्मन सेना के पैर उखड़ने लगे थे। अग्रिम चौकी पर तैनात जाट रेजीमेंट में शामिल मदनापुर के काबिलपुर गांव निवासी रमेश कुमार भी अपनी टुकड़ी के साथ डटे हुए थे। 12 जून 1999 को दिन भर गोलीबारी होती रही।

रमेश व उनके साथी सैनिक अपनी चौकी को सुरक्षित रखने में सफल रहे। शाम ढलने पर दोनों ओर से गोलीबारी थमी तो वहां पर दूसरी टुकड़ी भेजी गई। रमेश व उनके साथी नीचे कैंप की ओर जाने लगे तभी दुश्मन सेना ने बम से हमला कर दिया। रमेश व उनके साथी घायल हुए, लेकिन अपनी परवाह न करते हुए फिर से मोर्चा संभाल लिया।

इस अप्रत्याशित जवाब से पाकिस्तानी के पास पीछे हटने के सिवाय कोई रास्ता न बचा, लेकिन रमेश व उनके तीन साथी बलिदान हो गए। सेना में भर्ती होने के समय मातृभूमि की रक्षा का जो संकल्प लिया था उसे तो उन्होंने पूरा किया, लेकिन पत्नी सुनीता से किया हुआ वादा नहीं निभा सके।

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पांच दिन पूर्व ही सुनीता ने बेटे आशीष को जन्म दिया था। फोन पर जानकारी दी तो रमेश बहुत खुश थे। कहा था कि युद्ध खत्म होते ही सबसे पहले घर आएंगे। बेटे का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाएंगे, लेकिन उससे पहले ही वह बलिदान हो गए। अपने बेटे का वह उसका चेहरा भी नहीं देख सके।

रमेश के बलिदान की गाथा सुनकर हर जिलेवासी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उन्हें अंतिम विदाई देने काबिलपुर गांव में रेला उमड़ा। उनको मरणोपरांत सैन्य मेडल दिया गया। सरकार ने पत्नी को पेट्रोल पंप व अन्य सहायता दीं। उनकी प्रतिमा भी लगी, लेकिन आश्वासन देने के बाद भी उनके नाम पर गांव का अब तक नामकरण नहीं हो सका।

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1991 में हुए थे भर्ती

दो अक्टूबर 1971 को काबिलपुर गांव में जन्मे रमेश अपने पिता चतुरी लाल व माता सुशीला देवी की तीन संतानों में दूसरे नंबर पर थे। बचपन से ही सेना में भर्ती होकर देश सेवा करने का जज्बा था। इसलिए हाईस्कूल करने के बाद ही वह 1991 में सेना की जाट रेजीमेंट में सिपाही के रूप में भर्ती हो गए।

रमेश के माता, पिता व बड़े भाई राजाराम का निधन हो चुका है। छोटे भाई उमेश चंद्र परिवार के साथ जलालाबाद में रहते हैं। रमेश की पत्नी को जलालाबाद के याकूबपुर में जो पेट्रोल पंप दिया गया था उसकी देखभाल वही करते हैं।

बरेली में रह रहीं पत्नी व बच्चे

मासूम बेटे के साथ सुनीता पर चार अन्य बच्चों की जिम्मेदारी थी। वह कई दिन तक सदमे में रहीं। उसके बाद परिवार को संभाला। वह वर्तमान में बरेली में लाल फाटक के पास रहती हैं। बड़े बेटे आशीष व बेटी सोनी की शादी हो चुकी है।

अशोक व दो बेटियां मोनी और रोली अभी अविवाहित हैं। रमेश के भतीजे सर्वेश कुमार व सुनील कुमार गांव में रहकर पैतृक घर व खेती की देखभाल करते हैं। बलिदान दिवस पर लोग गांव में आकर रमेश के बलिदान को याद करते हैं। उनकी प्रतिमा पर फूल माला चढ़ाते हैं।

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