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महाभारत काल से लेकर पलायन तक का साक्षी है कैराना, अंगराज कर्ण की नगरी में क्या है सियासी समीकरण; ग्राउंड रिपोर्ट

अंगराज कर्ण की कर्णपुरी कई कारणों से लगातार सुर्खियों में बनी रहती है। कैराना सभी पलायन को लेकर तो राजनीतिक धूप-छांव को लेकर लाइमलाइट में रहता है। कैराना की राजनीतिक विरासत की बात करें तो यहां की धरती से घरानों की दो धाराएं-एक संगीत और दूसरी सियासत। चुनाव की गर्मी को लेकर कैराना में भी तपिश तेज है। दैनिक जागरण की ग्राउंड रिपोर्ट से जानते हैं यहां का सियासी समीकरण...

By Jagran News Edited By: Abhishek Pandey Updated: Mon, 08 Apr 2024 03:25 PM (IST)
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महाभारत काल से लेकर पलायन तक का साक्षी है कैराना, अंगराज कर्ण की नगरी में क्या है सियासी समीकरण
Kairana constituency UP Lok Sabha Chunav 2024: कैराना की धरती से घरानों की दो धाराएं फूटती हैं। एक संगीत और दूसरी सियासत। दोनों घरानों से निकले चेहरे अपने क्षेत्रों में दूर तक जाने गए। आज चुनावी धूप में कैराना तपने लगा है। मुकाबला कांटे का बताया जा रहा है। दूसरी बार भाजपा के प्रदीप चौधरी हसन परिवार के सामने चुनौती पेश कर रहे हैं। श्रीपाल राणा अपने अंदाज में ताल ठोंक रहे हैं। जीत दोहराई जाएगी या कैराना में बदलाव होगा, इसे लेकर अपने-अपने तर्क हैं... दावे हैं। कैराना में चरम पर पहुंची राजनीतिक सरगर्मी पर समाचार संपादक रवि प्रकाश तिवारी की रिपोर्ट...

यूं तो कैराना का इतिहास पांच हजार साल पीछे से शुरू होता है। कहते हैं अंगराज कर्ण की बसाई कर्णपुरी ही आज का कैराना है। मराठाओं ने इसे छावनी क्षेत्र बनाया। मराठा काल में वजीर रहे रंगीलाल की दान में दी गई भूमि पर बना माता बाला सुंदरी का मंदिर और सामने सरोवर यहां आज भी है। इसकी कोख में पलायन का मुद्दा भी पला।

Kairana Lok Sabha election 2024: अंगराज कर्ण की नगरी में क्या है सियासी समीकरण, कैराना मराठा काल से लेकर पलायन तक का है साक्षी; पढ़ें ग्राउंड रिपोर्ट

चुनावी परिदृश्य में कैराना को देखें तों 1962 में बनी कैराना लोकसभा सीट शुरुआत में तो पंजे के कब्जे में रही, लेकिन देश में राजनीतिक परिदृश्य बदला तो कैराना भी उसका सहभागी बना। कैराना के राजनीतिक समीकरण के बारे में कहा यही जाता है कि हिंदू हो या मुस्लिम गुर्जर जिसके साथ...जीतेगा वही।

कैराना में दो चबूतरें हैं राजनीति का अहम केंद्र

वैसे कैराना कस्बे के दो चबूतरे राजनीति के दो अहम केंद्र हैं। एक कलस्यान खाप का तो दूसरा हसन चबूतरा। बाबू हुकुम सिंह के पिता मान सिंह ने हिंदू गुर्जरों को एकजुट कर कलस्यान खाप का चबूतरा बनवाया जो अब चौपाल की शक्ल ले चुका है।

ऐसे ही सपा-कांग्रेस की साझा उम्मीदवार इकरा हसन के दादा अख्तर हसन ने हसन चबूतरा स्थापित किया। यहां से मुस्लिम समाज के हक की आवाज उठाते हुए राजनीतिक पहचान बनाई।

1962 में गठित कैराना लोकसभा क्षेत्र में वर्तमान में करीब छह लाख मुस्लिम मतदाता और 11 लाख से अधिक हिंदू मतदाता हैं। इनमें लगभग ढाई लाख दलित समाज, डेढ़ लाख जाट, 1.30 लाख गुर्जर हैं। ओबीसी में सैनी और कश्यप की संख्या सवा-सवा लाख से ज्यादा है।

ओबीसी वैट बैंक की ओर इकरा की नजर

2022 के विधानसभा चुनाव में जेल से चुनाव लड़ रहे भाई नाहिद हसन के चुनाव का पूरा जिम्मा उठाने वाली इकरा इस बार मुस्लिम समाज के साथ वंचित समाज और भाजपा से नाराज लोगों को साधने में जुटी हुई हैं। उनका प्रचार का फोकस मुस्लिम गांवों की ओर कम और ठाकुर, ओबीसी बिरादरी की ओर ज्यादा है।

बाबू हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को टिकट न मिलने का भावनात्मक लाभ लेने के लिए हिंदू गुर्जरों से भी वोट मांग रही हैं। वहीं पिछले चुनाव में इकरा की मां तबस्सुम हसन को 90 हजार से अधिक मतों से मात देने वाले प्रदीप चौधरी रालोद के भाजपा के साथ आने से उत्साहित हैं। यहां ओबीसी की बड़ी हिस्सेदारी होने को भी अपने पक्ष की हवा बताने की कोशिश की जा रही है।

पार्टी के नेता, कार्यकर्ता द्वारा प्रदीप पर निष्क्रिय रहने का आरोप लगाकर विरोध की बात भी सामने आ रही है, लेकिन उनके लिए आपका वोट मोदी को... वाला मंत्र भाजपा का मनोबल बढ़ाता है। बसपा के उम्मीदवार श्रीपाल राणा भी जीत की खातिर एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।

बसपा का जाती का दावा

बसपा कैंप का कहना है कि उन्हें तो सर्वसमाज का समर्थन है। दलित समाज पूरा और मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा आज भी बहनजी के साथ है। कैराना के पांच विधानसभा क्षेत्रों में तीन शामली में हैं और दो नकुड़ व गंगोह सहारनपुर में।

सहारनपुर वाली दोनों विधानसभा सीटों पर भाजपा विधायक हैं जबकि शामली और थानाभवन में रालोद के विधायक हैं। कैराना में स्वयं इकरा के भाई नाहिद हसन ही विधायक हैं। कैराना की सीट हाई प्रोफाइल भी रही है। विपक्षी एकता के बड़े नेताओं में से एक चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी ने 1980 में यहां से जीत दर्ज की थी।

1984 में अख्तर हसन ने कांग्रेस की वापसी कराई, लेकिन वही अंतिम मौका था, तब से अब तक कांग्रेस इस सीट पर नहीं जीती। 2009 में दूसरे नंबर पर रहने के बाद 2014 में बाबू हुकुम सिंह चुनाव जीते और 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले कैराना का पलायन मुद्दा उन्होंने संसद में उठाया जो देशभर में गूंजा।

कैराना से लेकर शामली तक मतदाताओं से बात करेंगे तो अपनी पसंद की पार्टी या नेता के पक्ष में वे मजबूती से खड़े दिखते हैं।

कैराना में वेल्डिंग के व्यवसाय से जुड़े तैयब हसन कहते हैं, रोजगार बड़ा मुद्दा है। हमसे आधे घंटे की दूरी पर पानीपत है। वहां कल-कारखाने हैं। यहां से रोजाना हजारों लोग वहां काम करने जाते हैं। कैराना में क्यों नहीं लगते उद्योग?

मेडिकल स्टोर संचालक मोहम्मद फैजान खेलकूद की सुविधाओं का मुद्दा उठाते हैं। कहते हैं, एक स्टेडियम हो, खेलकूद का बड़ा केंद्र बने तो युवाओं का भला हो, लेकिन हमारी कोई सुनता नहीं। सांसद प्रदीप चौधरी मिलते नहीं कि हम बात भी रख सकें। ऐसे में हमारे बीच की इकरा जीतीं तो हमारा भला सोचेंगी।

शामली के मिष्ठान विक्रेता मनोज मित्तल कहते हैं, हमारी पसंद तो मनीष चौहान थे, लेकिन पार्टी ने टिकट नहीं दिया। प्रदीप आते-जाते नहीं हैं, लेकिन यह चुनाव उनका नहीं है। मोदी का है। देश का है, इसलिए वोट तो मोदी के नाम का ही।

डा. नीलम सुरक्षा व्यवस्था को बड़ा मुद्दा बताती हैं। कहती हैं, हमें अब असुरक्षा का भय नहीं। बेटी भी अकेले आती-जाती है, चिंता नहीं होती। पहले तो घबराहट होने लगती थी। यही नहीं, सड़कों का जाल जिस तरह से फैला है... मेरठ, दिल्ली, गुरुग्राम, पानीपत कहीं भी आना-जाना आसान हो गया है।

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कैराना का जिला मुख्यालय शामली है। वैसे तो शामली के बाहर सड़कों, फ्लाईओवर का अब जाल बिछ गया है, लेकिन पेराई सीजन में जाम की समस्या अब भी है। कृषि प्रधान, खासकर गन्ना यहां की आर्थिकी का प्रमुख आधार है। शामली हो, चाहे कैराना, इन्हें चुनावी वादों को जमीन पर उतरने का अब भी इंतजार है।

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