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Pitru Paksha 2024: पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए यहां पिंडदान नहीं, 'शिवलिंग' करते हैं दान

काशी में पितृ पक्ष के दौरान पूर्वजों के लिए पिंडदान की बजाय शिवलिंग दान करने की अनूठी परंपरा है। जंगमबाड़ी मठ में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही इस प्रथा में दक्षिण भारत के वीर शैव संप्रदाय के लोग अपने मृत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पत्थर या मिट्टी के छोटे-छोटे शिवलिंग दान करते हैं। यहां अनोखी परंपरा और वीर शैव संप्रदाय के बारे में विस्तार से जानें।

By Jagran News Edited By: Vivek Shukla Updated: Mon, 23 Sep 2024 03:26 PM (IST)
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जंगमबाड़ी मठ में स्थापित लाखों शिवलिंग। जागरण

 शैलेश अस्थाना, जागरण वाराणसी। पितृपक्ष में पूर्वजों के लिए पिंडदान कर उनका तर्पण-अर्पण करने की परंपरा तो हर जगह है, लेकिन काशी में एक ऐसा मंदिर है, जहां पूर्वजों के श्राद्ध के समय पिंडदान के बजाय शिवलिंग दान करते हैं। सैकड़ों वर्षों से यह परंपरा निभाई जाती है जंगमबाड़ी मठ में। दक्षिण भारत के वीर शैव संप्रदाय का यह मठ कई मामलों में अनोखा है।

संप्रदाय के प्रवर्तक कर्नाटक के श्रीविश्वाराध्य महास्वामी ने लगभग 1700 वर्ष पूर्व भगवान शिव की राजधानी काशी में विश्वाराध्य पीठ की स्थापना की थी। भगवान शिव के रुद्र स्वरूप की आराधना के प्रथम संस्कार के साथ ही राष्ट्र व समाज के प्रति पूर्ण समर्पण व चिंतन वीर शैव संप्रदाय को अन्य पंथों की एकरस धारा से अलग पहचान देता है।

इस पंथ के लोग सदैव गले के माला में शिवलिंग को लाकेट के रूप में धारण करते हैं। इसे इष्टलिंग कहते हैं और इसे हथेली पर लेकर आराधना करते हैं। वीर शैव संप्रदाय के लोग अधिकांश, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना व महाराष्ट्र से आते हैं। अपने मृत पूर्वजों के मोक्ष व आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करने वे काशी आते हैं और यहां इस मंदिर में पत्थर या मिट्टी के छोटे-छोटे शिवलिंग दान करते हैं।

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इस क्रम में मंदिर में लाखों शिवलिंग स्थापित हैं। सावन में अधिक होता है श्राद्ध: पांच हजार वर्ग फुट में फैले मठ में पितृपक्ष के बजाय सावन में श्राद्ध कर्म होता है। सनातन धर्म में जिस विधि-विधान से पिंडदान होता है, ठीक वैसे ही मंत्रोच्चारण के साथ शिवलिंग स्थापित किया जाता है।

मठ के व्यवस्थापक स्वामी शिवानंद ने बताया कि जो शिवलिंग जीर्ण हो जाते हैं, उन्हें परिसर में स्थित कुओं में विसर्जित कर दिया जाता है। मठ में प्रतिदिन लगभग हजारों दक्षिण भारतीय श्रद्धालुओं का आवागमन होता है।

पांचवीं सदी से मिलता है इतिहास

काशी के प्राचीनतम मठों में एक यह मठ ज्ञान सिंहासन अथवा ज्ञानपीठ रूप में जाना जाता है। मान्यता है कि पांचवीं शताब्दी में श्रीकाशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग से जगतगुरु विश्वाराध्य का उद्भव हुआ था। 1918 में जगदगुरु विश्वाराध्य गुरुकुल की स्थापना वीर शैव धर्म के पांच पीठों के आचार्यों की देख-रेख में हुई थी।

वैसे मठानुयायी इसे तीन हजार वर्ष पुराना होने का दावा करते हैं लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य आठवीं शताब्दी तक के मिलते हैं। मठ में कई गुरुमाएं भी रही हैं। वीर शैव लोग केवल शिवलिंग की आराधना करते हैं। यहां जाति भेद व पुनर्जन्म की मान्यता नहीं है। मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति शिव से जन्म लेता है और मृत्यु के समय शिव में ही विलीन होता है। इसलिए पूर्वजों को शिवलिंग रूप में ही पूजते हैं।

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सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भूमिका निभाता है मठ

मठ अनेक सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भूमिका निभाता है। रूस में भी पीठ के मठों व आश्रमों की स्थापना कर भारतीय धर्म, दर्शन को अंतरराष्ट्रीय विस्तार देने में सक्रिय है। शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकल्प चल रहे हैं।

मठ की अंतरराष्ट्रीय छवि की श्रीवृद्धि में पूर्व पीठाधिपति चंद्रशेखर महास्वामी ने महती भूमिका निभाई। अब 87वें अधिपति डा. मल्लिकार्जुन शिवाचार्य महास्वामी भी पूर्ववर्ती पीठाधिपति के कार्यों को संकल्प के साथ आगे बढ़ा रहे हैं।