प्राचीन भारतीय लिपि मनुष्य की जीत का जीवंत प्रतीक है, भाषा को सुरक्षित रखने का माध्यम : डा. मुन्नी जैन
प्राचीन भारत में लिपि को इतना बड़ा गौरव प्राप्त था कि हमारी पाठशालाओं और विद्यालयों को ‘लिपिशाला कहा जाने लगा। लिपि को मातृका या सिद्धमातृका भी कहा जाता है। दरअसल लिपि मनुष्य की जीत का जीवंत प्रतीक है।
By Abhishek SharmaEdited By: Updated: Tue, 29 Jun 2021 12:49 PM (IST)
जागरण संवाददाता, वाराणसी। प्राचीन भारत में लिपि को इतना बड़ा गौरव प्राप्त था कि हमारी पाठशालाओं और विद्यालयों को ‘लिपिशाला' कहा जाने लगा। लिपि को मातृका या सिद्धमातृका भी कहा जाता है। दरअसल लिपि मनुष्य की जीत का जीवंत प्रतीक है। जो चीज साहित्य में नहीं मिलती, वह अभिलेखों शिलालेखों में मिलती हैं।
प्राचीन ब्राह्मी लिपि के तीन दिवसीय ऑनलाइन कार्यशाला का यह निष्कर्ष रहा । बतौर मुख्य अतिथि जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय अतिथि व्याख्याता एवं ब्राह्मी लिपि विशेषज्ञा विदुषी डा. मुन्नी जैन ने बताया कि लिपि का इतिहास बहुत पुरातन है , वह एक दिन में नहीं बनी, उसकी विकास यात्रा के कई पड़ाव हैं , उसके गठन में अनेकानेक सदियां लगी हैं ।संकेतों से लिपि का निरन्तर विकास हुआ है? लिपियों का इतिहास मोहन-जो-दड़ों , हड़प्पा और सिंधु घाटी की सभ्यताओं तक फैला हुआ है । इतनी पुरानी ब्राह्मी लिपि को हम सदियों बाद सन 1837 में पढ़ने में सक्षम हो सके। इसको बांचने में बड़ी मेहनत मशक्कत हुई और बहुत समय लगा है ।
ब्राह्मी लिपि का महत्त्व एवं प्राचीनत : ब्राह्मी सभी भारतीय तथा सीमांत राज्यों की लिपियों की माँ अर्थात् जननी है । हमारी लिपि की वर्णाकृतियाँ भी दिलचस्प है । हमारा (त्रिभुज)‘ए’ वर्ण का प्रतीक बन गया और ‘+’ जोड़ का चिन्ह ‘क’ वर्ण बन गया । चीन की और सिंधुघाटी की लिपियों से हम इस सच्चाई पर दस्तखत कर सकते हैं कि लिपि चिन्हों का जन्म चित्रकला से हुआ पहले विचारों को आकृतियां दे दी जाती थी । जब आकृतियों की संख्या बढ़ी तो अक्षर कला का विकास हुआ ।
भारतीय लिपियों का उद्गम स्थान ब्राह्मी लिपि है । ब्राह्मी को भारतीय मस्तिष्क का चमत्कार ही समझना चाहिए । जिसमें स्वर और व्यंजनों को अत्यंत वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित चिन्हों द्वारा संयोजित किया गया है ।
भारतीयता की अनोखी देन पाषाणों में प्राण प्रतिष्ठा शिलालेख : पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा ,ज्ञान प्रतिष्ठा ,इतिहास स्वर्णिम अतीत की धरोहर को संजोना हुमारे पूर्वजों की अनोखी देन है । भारतीय संस्कृति की महानता को सदियों बाद आने वाली पीढ़ियों तक पाहुचाई जाये इसके लिए हमारे पूर्वजों ने कितने उपाए सोचे और उन्होंने चट्टानों में अमृतसंदेश खुदवाए ,बेजुबान पाषाणों को जुबान दी इतिहास के अतीत की स्वर्णिम गाथा गाने के लिए शिलाओं, पत्थरों पर अक्षरों के मोती बिखेरे इसलिए समृद्ध इतिहास की विरासत सदियों को पार करके अचल होकर भी हमारे पास चली आई । जिससे हमारा मस्तक गर्व से उन्नत हुआ है । अब हमारा कर्तव्य है इस विशाल विरासत की सुरक्षा करें । भारतीय मनीषा समृद्धि के अनेक बहुमूल्य तत्व हैं – उनमें महत्वपूर्ण ‘लिपि’ भी एक है जो भारत की आत्मा है ।
ब्राह्मीलिपि की खोज : इतिहास के महत्वपूर्ण दस्तावेज,प्राचीन गुफाओं, स्मारकों, दीवारों तथा पर्वतों पर खुदे शिलालेखो के रूप में विद्यमान हैं। विद्वानों ने देखा कि इन पत्थरों पर विभिन्न आकृतियों उत्कीर्ण हैं और ये सब भारतवर्ष की हजारों वर्ष प्राचीन मनीषा का कोई महत्वपूर्ण संदेश हमें देना चाहती हैं। किन्तु समस्या बड़ी कठिन भी थी, वह इन्हें न पढ़ पाने और न समझ पाने की।
हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ रूप इन शिलालेख में हजारों वर्षों पूर्व उत्कीर्ण इस लिपि के रहस्य किसी को न ज्ञान था और न भाषा का ही पता था। पश्चिमी तथा पूर्वी विद्वानों ने इन लिपियों को समझने के लिए खोज प्रारंभ कर दी। इस लम्बी खोज की भी अपनी एक कठिन दास्तान है। इस दास्तान को प्रसिद्ध विद्वान ने डॉ०सत्येन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘पाण्डुलिपि विज्ञान’ में विस्तारपूर्वक लिखा है।
ब्राह्मीलिपि के दर्शन शोधकर्ताओं को सन् १७९५ ई० में ही हो गये थे। इसी समय चार्ल्स मैलेट ने एलोरा की गुफाओं की कितनी ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजी। विलियम जेम्स ने यह नकल काशी में रह रहे मेजर विल फोर्ड के पास इन लिपियों को पढ़वाने के लिए भेज दिया। काशी में लिपि पढ़ने वाला कोई पण्डित नहीं मिला। एक चतुर विद्वान ने दक्षिणा के लोभ में लिपियों को गलत पढ़ दिया। मेना विलफोर्ड ने उस कल्पित रीति से पढ़े पाट के आधार पर ही विश्वासपूर्वक उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया। मेजर विलफोर्ड की इस शोध को लेकर वर्षों तक किसी को कोई संदेह नहीं हुआ ।
आगे चलकर सन् 1833 में मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने मेजर विलफोर्ड की शोथ को भ्रमपूर्ण पाया। जिज्ञासु मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने 1834 - 45 ई० में इलाहाबाद, रधिया और मथिया के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मंगवाकर उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर अक्षरों के साम्यता पान कर मिलान किया। अनेक प्रकार के स्वर चिन्हों की पहचान के बाद मिस्टर जेम्स प्रिंसेप उत्साहित हुए और आगे इसे पढ़ने और समझने का प्रयास करते रहे।
सन् 1837 ई० में मिस्टर प्रिंसेप ने अपनी मेहनत तथा प्रतिभा के द्वारा ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण शिलालेखों से सर्वप्रथम 'द' 'न' – इन दो अक्षरों को पढ़कर 'दान' शब्द खोज निकाला, जिससे उनकी उस शिलालेख के प्रतिपाद्य विषय सम्बन्धी समस्याओं का कुछ समाधान हुआ। इसके बाद उन्होंने सांची, गिरनार, रधिया, धौरभी आदि स्थानों से प्राप्त शिलालेखों के आधार पर लिपि आदि की एकरुपता को देखकर उन्हें बहुत कुछ हद तक पढ़ डाला।
उन्हीं दिनों पादरी जेम्स इस्टीवेंसन ने भी इस खोज में लगकर लेखों को पढ़ने की पूरी कोशिश की, किन्तु ब्राह्मी लिपि के इन शिलालेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण वे इनका असली रहस्य समझने में सफल नहीं हो सके, क्योंकि इन शिलालेखों की मूल भाषा प्राकृत थी।बाद में इस लिपि की खोज में जिन भारतीय विद्वानों ने श्रम किया , उनमें डॉ. भाउदाजी, पं. भगवानलाल इन्द्रजी तथा डॉ० राजेन्द्रलाल मित्र का नाम प्रमुख है। इन्होनें अनेक शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों को पढ़ा। इन विद्वानों के नाम का उल्लेख मुनि जिनविजय जी ने “पुरातत्व संशोधन का पूर्व इतिहास'' (वर्ष 1, अंक 2-3 के पृष्ट 27-34) में किया है।
इस तरह यह ब्राह्मी लिपि की खोज की शुरूआत थी। कालान्तर में अनेक विद्वानों ने अथक श्रम करके इसकी अन्य अनसुलझी गुत्थियां को भी सुलझाया और ब्राह्मी लिपि के पूर्ण अध्ययन की एक परम्परा चल पड़ी।ब्राह्मीलिपि की प्रमुख विशेषतायें : देवनागरी लिपि को अनेक गुण ब्राह्मी से ही विरासत में मिले हैं । यह देवनागरी की जननी है , इस प्रकार ब्राह्मी सार्वदेशिक (राष्ट्रीय) लिपि थी। संस्कृत भाषा की अपेक्षा ब्राह्मी में कम अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है तथा इसमें संयुक्ताक्षरों का अभाव है।सम्राट अशोक के प्रायः अभिलेख ब्राह्मी में हैं और उनकी भाषा प्राकृत तथा कहीं-कहीं संस्कृत मिश्रित प्राकृत है। जैन फाउण्डेशन द्वारा आयोजित कार्यशाला तकनीकी सहयोग डॉ. इन्दु जैन, डॉ. अरिहंत कुमार जैन तथा श्रीमती नेहा जैन तथा संचालन नील शाह ने किया ।
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