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बाबू देवकीनंदन खत्री पुण्‍यतिथि : ठेकेदार बना उपन्यासकार, रचा रहस्य-रोमांच का अद्भुत संसार

babu devkinandan khatri death anniversary बाबू देवकीनंदन खत्री की लेखनी ने चंद्रकांता के अलावा चंद्रकांता संतति काजर की कोठरी नरेंद्र मोहिनी कुसुम कुमारी वीरेंद्र वीर गुप्त गोदना तथा कटोरा भर की झड़ी लगा दी। उनका जन्म 18 जून 1861 को मुजफ्फरपुर में औरनिधन एक अगस्त 1913 को काशी में हुआ।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Sun, 31 Jul 2022 10:47 PM (IST)
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बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म 18 जून, 1861 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में हुआ था।

वाराणसी, कुमार अजय। उस दौर तक हिंदी साहित्य की पठनीयता कुल मिलाकर आम पाठक के लिए 'किस्सा तोता-मैना' "शीत-वसंत' तथा "राजा भरथरी" (भतृहरि) तक ही सीमित था। गंभीर पाठकों के लिए साहित्य नाम पर अध्यात्म, दर्शन अथवा नायिका प्रधान कुछ गुरुतर प्रकाशनों तक ही केंद्रित था।

ऐसे में मीरजापुर के जंगलों में वृक्षों की कटान का ठेका लेने वाले एक घुमक्कड़ ठेकेदार ने कलम उठाई और पहली बार रचा रहस्य-रोमांच का एक अद्भुत तिलिस्मी संसार करिश्माई। पुण्यतिथि के अवसर पर हम शेष स्मृतियों को संजोने जा रहे हैं चंद्रकांता जैसे धूम मचाऊ उपन्यास के लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री का, जिनकी रचनाओं ने उन्हें रातों-रात साहित्य जगत का सितारा बना दिया।

लोकप्रियता का आलम यह कि उन्हें पढ़ने के लिए हजारों अंग्रेजी व उर्दूदां लोगों को हिंदी सीखनी पड़ी। सच कहें तो अंग्रेजी, उर्दू के प्रचलन से अलग देवनागरी को बोलचाल व लेखन की एक वेगवती धारा प्रवाहित करने का श्रेयस भी उन्हीं के नाम को अलंकृत करता है।

बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म 18 जून, 1861 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में हुआ था। बाद में उनका पूरा परिवार काशी के लाहौरी टोला मुहल्ले (अब काशी धाम में विलीन) में आकर बस गया। बचपन से ही घुमक्कड़ी तबीयत के मालिक देवकी बाबू ने तरुणाई में जब मीरजापुर (अब सोनभद्र भी) में वृक्षों की कटान का ठेका लिया तो उन्हें इस क्षेत्र के वन प्रांतरों में विचरने का भरपूर मौका मिला।

उन्होंने इस दौरान नौगढ़, विजयगढ़ जैसी जागीरों के प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमने का भी अवसर मिला। यहीं से उनके उर्वर मस्तिष्क में तिलिस्मी उपन्यासों की रचना का विचार आया। सोच जब पक्के इरादे में बदली तो हिंदी साहित्य का पहला परिचय हुआ चंद्रकांता नाम से प्रकाशित पहले तिलिस्मी उपन्यास से और उसके अय्यार व अय्यारी जैसे पात्रों से। यहीं से हिंदी में पहली बार थ्रिलर लेखन की शुरुआत हुई। 'चंद्रकांता' हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में एक है जिसका पहला प्रकाशन वर्ष 1888 में हुआ।

बाबू साहब के रिश्तेदार राजेश खत्री बताते हैं कि आरंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने टिकारी स्टेट की दीवानी का काम संभाल लिया। इसी दौरान उनकी निकटता तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह से हुई और उनकी अनुकंपा से उन्हें नौगढ़ व विजयगढ़ जैसे सुदूरवर्ती वनों में वृक्षों की कटाई का ठेका प्राप्त हुआ। इस परिवर्तन का परिणाम यह रहा कि उन्हें अपनी तबीयत के अनुरूप सैर-सपाटे का भरपूर मौका मिला और वे एक तरह से इन वनों के यायावर बन गए।

उन्होंने अपने दिलो-दिमाग में अंकित अनुभवों को शब्द क्या दिए, उनकी लेखनी ने चंद्रकांता के अलावा 'चंद्रकांता संतति', 'काजर की कोठरी', 'नरेंद्र मोहिनी', 'कुसुम कुमारी', 'वीरेंद्र वीर', 'गुप्त गोदना' तथा 'कटोरा भर' जैसे उपन्यासों की झड़ी लगा दी। उनका रोमांचक उपन्यास 'भूतनाथ' उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरी की। ठेके का काम छूट जाने के बाद उन्होंने रामकटोरा मुहल्ले में लहरी प्रेस की स्थापना की और कई वर्षों तक सुदर्शन नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। उनका निधन एक अगस्त, 1913 को काशी में हुआ।

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