Move to Jagran APP

काशी में बसता है मिनी बंगाल, कोलकाता के बाहर वाराणसी में दिखते हैं सबसे अधिक बंगाली; 1800 साल पुराना है नाता

काशी को मिनी बंगाल के रूप में जाना जाता है। भारत में कोलकाता के बाहर सबसे अधिक बंगाली आबादी निवास करती है। बंगाल के पाल वंशीय राजाओं ने अपनी प्रजा के साथ काशी में आना आरंभ किया था। दुर्गा पूजा काली पूजा महालक्ष्मी पूजा और सरस्वती पूजन जैसे त्योहारों में बंगाल की मातृ-उपासना की परंपरा काशी में जीवंत हो उठती है।

By Shailesh Asthana Edited By: Riya Pandey Updated: Sat, 12 Oct 2024 03:56 PM (IST)
Hero Image
पांडे हवेली स्थित वाराणसी दुर्गोत्साई सम्मिलनी की तस्वीर
जागरण संवाददाता, वाराणसी। कोलकाता के बाहर यदि किसी शहर में बंगभाषियों की सर्वाधिक संख्या है तो वह है काशी, इसीलिए काशी को मिनी बंगाल भी कहा जाता है। वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य का यह दावा सच ही प्रतीत होता है जब हम देखते हैं कि काशी में बंगाली टोला के रूप में वास्तव में एक मिनी बंगाल बसा हुआ है।

हर गलियों में बंगाली बसावट

यह बसावट सिर्फ बंगाली टोला में ही नहीं पक्के महाल की गलियों से लेकर अन्य मुहल्लों तक में मिलती है। मां की शक्ति के उपासना काल यानी नवरात्र के दुर्गोत्सव से लेकर दीपावली की काली व महालक्ष्मी पूजा तथा वसंत पंचमी के सरस्वती पूजन में भी बंगाल की मातृ-उपासना के संस्कार काशी की धरती पर यहां की गलियों, सड़कों, चौबारों तक दिख जाते हैं।

अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि काशी व बंगाल का यह संबंध लगभग 1800 वर्ष पुराना है। यह एक सच्चाई है कि बंगाल के पाल वंशीय राजाओं ने ही काशी में अपनी प्रजा के साथ आना आरंभ किया था।

बंगाल के बहुत विद्वान काशी में आकर बसे

सारनाथ के संग्रहालय में रखी आधी से अधिक मूर्तियों के नीचे पाल वंशी राजाओं के खुदे नाम इस बात के प्रमाण हैं। वस्तुत: बंगाल या पूर्वी भारत का समाज मातृ सत्तात्मक रहा है। वहां के समाज में माता ही परिवार की मुखिया होती हैं। इस वैचारिक धारा के अनुयायियों ने मां गंगा की धारा के विपरीत, विंध्य पर्वत श्रेणियों के सहारे काशी तक अपनी पहुंच बनाई।  विंध्य क्षेत्र में मौजूद मां काली की प्रतिमा इसका उदाहरण है।

चूंकि काशी विद्या की राजधानी है। अतएव अध्ययन-अध्यापन हेतु बंगाल के बहुत से विद्वान यहां आए और बस गए।

बंगाल के विद्वानों ने रखी थी न्यायशास्त्र की अध्यापन की नींव

बंगाल के विद्वानों ने ही यहां ‘न्यायशास्त्र’ की शाखा के अध्यापन की नींव रखी थी। मुधसूदन सरस्वती जैसे परम विद्वान को स्वामी बल्लभाचार्य प्रभु ने भी अपना गुरु माना था। वह 650 वर्ष पूर्व बंगाल से यहां आए थे। संयोगवश वे हमारे पूर्वज भी हैं और हम लाेग उन्हीं की वंश परंपरा से आते हैं।

यह भी पढ़ें- काशी की रामलीला: नाटी इमली का भरत मिलाप कल, देखनें जुटेंगे लाखों श्रद्धालु; आकाशवाणी पर होगा प्रसारण

18वीं सदी के मध्य काल में बंगाल से यहां आईं रानी भवानी ने अनेक मातृ मंदिरों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार कराया, जिसमें दुर्गा कुंड का मंदिर भी शामिल है। उनके साथ बंगाल की संस्कृति का रंग यहां और गाढ़ा हुआ। 18वीं सदी में ही यहां शक्ति पूजा ने अपना स्वरूप लिया।

दुर्गा पूजा को बनाया गया स्वतंत्रता आंदोलन के मजबूती का माध्यम

जिस तरह बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र व उसके बाहर श्रीगणेशोत्सव को स्वतंत्रता संग्राम का संगठित माध्यम बनाया। उसी प्रकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने आनंदमठ में सन्यासी विद्रोह की कथा से आंदोलन में प्राण फूंके। उनके बाद श्रीदुर्गा पूजा को स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती देने का माध्यम बनाया गया।

बंगाली टोला स्थित पांडेय हवेली में होने वाली वाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी 100 वर्ष पूर्व इसी उद्देश्य को केंद्र में रखकर आरंभ की गई थी, यह काशी की सबसे प्राचीन सार्वजनिक दुर्गा पूजा है। सार्वजनिक पूजनोत्सवों ने समाज में व्याप्त रुढ़िवादिता को कम कर समाज के सभी वर्गों को पास लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धार्मिक शुद्धता के साथ पूजा के भारतीय परंपरा के विधान आज भी काशी में सुरक्षित हैं।  

यह भी पढ़ें- Varanasi News: 50 हजार का इनामी हत्याराेपित STF के हत्थे चढ़ा, अपने ही पिता को उतार दिया था मौत के घाट

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।