धर्म सम्राट करपात्री महाराज के सहेजे-सजाए गए राम मंदिर में शैव-वैष्णव एका का सपना हो रहा साकार
धर्म सम्राट करपात्री जी महाराज ने धर्म प्रचार के लिए वर्ष 1940 में अखिल भारतीय धर्म संघ की स्थापना की तो दुर्गाकुंड स्थित अपनी तपोस्थली को इसका केंद्र बिंदु बनाया। इसमें अपने आराध्य देव मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का दरबार सजाया।
By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Tue, 10 Aug 2021 09:10 AM (IST)
जागरण संवाददाता, वाराणसी। धर्म सम्राट करपात्री जी महाराज ने धर्म प्रचार के लिए वर्ष 1940 में अखिल भारतीय धर्म संघ की स्थापना की तो दुर्गाकुंड स्थित अपनी तपोस्थली को इसका केंद्र बिंदु बनाया। इसमें अपने आराध्य देव मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का दरबार सजाया। प्राण प्रतिष्ठा के अनुष्ठान में तत्कालीन काशी नरेश समेत देश भर से विशिष्ट संतों का दल उमड़ आया। इसमें दो शिव मंदिर पहले से थे, उन्हें भी प्रतिष्ठा के अनुरूप स्थान दिया। इसमें उनकी शैव-वैष्णव एका का संदेश देने की भावना समाहित थी। आज उनके विचारों की नींव पर परिसर में राम दरबार 43 हजार वर्ग फीट में विस्तार पा गया है तो रामस्य ईश्वर: या राम: यस्य ईश्वर: (रामेश्वर) के अर्थ जाल से दूर खड़ा शैव -वैष्णव एका की नजीर की तरह नजर आ रहा है। इसमें सियाराम के साथ ही शिव- राम तो शक्ति और पंचदेव का भी दर्शन भी एक साथ मिल जा रहा है। राम दरबार के ठीक सामने विशाल मंडप के मध्य पांच फीट आकार में शिवलिंग तो दोनों ओर 151 नर्मदेश्वर शिवलिंग की कतार। बगल में शिव परिवार और तन-मन को शिवमय करता स्फटिक मणि का द्वादश ज्योतिर्लिंग दरबार। परिक्रमा पथ पर अगले हिस्से में सूर्यदेव व काशी के कोतवाल बाबा काल भैरव, पिछले हिस्से में एक ओर गणपति देव तो दूसरी तरफ मां दुर्गा अभयदान मुद्रा में कृपा बरसा रही हैं। राम दरबार के बगल में ही मां अन्नपूर्णेश्वरी काशीवासियों के भरण-पोषण के लिए बाबा भोले शंकर को भिक्षादान के विधान निभा रही हैं। उनके प्राकट्योत्सव पर आयोजित समारोह में देश-विदेश से जुटे या आनलाइन जुड़े विद्वानों को यह छटा विभोर कर जा रही है। वास्तव में करपात्री जी के काल में धर्म दशा ठीक नहीं थी। हिंदू धर्म भी शैव-वैष्णव व शाक्त आदि तमाम संप्रदायों के खेमे में बंटा हुआ था। एेसे में उका प्रयास सबसे पहले इन दीवारों को ढहाने का था। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।
स्वामी करपात्री जी का जन्म 1907 में सावन शुक्ल पक्ष द्वितीया को प्रतापगढ़ के भटनी गांव में हुआ। माता-पिता रामनिधि ओझा व शिवरानी देवी ने उनका नाम हरि नारायण रखा। बाल मन में भक्ति के भाव इस तरह समाहित की आठ-नौ वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज में घर से दूरी बनाते रहे। बंधन भी उनकी धर्म के प्रति आसक्ति कम न कर पाए और वे 17 साल की उम्र में घर छोड़ कर अपनी राह पर चल पड़े। ज्योतिर्मठ में शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा से लेकर हिमालय होते काशी आए और उनका अभिनव शंकर के रूप में प्राकट्य हुआ। यहां वे पूर्ण रूप से संन्यासी बने और स्वामी हरिहरानंद सरस्वती करपात्री महाराज कहलाए।
करपात्री कहे जाने के पीछे मान्यता है कि वे अपने अंजुलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। अतः कर यानी हाथ और पात्र अर्थात बर्तन को जोड़ते हुए करपात्री (हाथ ही बर्तन हैं जिसके) कहलाए। उनकी धर्म शास्त्रों में अद्वितीय विद्वता को देखते हुए धर्म सम्राट की उपाधि दी गई। राम राज्य की परिकल्पना और गांधी दर्शन तक में समाहित तत्संबंधित विचार हों या धर्म सापेक्ष राज्य या राम मंदिर आन्दोलन ,इन सभी के मूल में करपात्री जी महाराज ही हैं।धर्म संघ शिक्षा मंडल के सचिव डा. जगजीतन पांडेय बताते हैं कि अपनी सोच को साकार रूप देने के लिए ही करपात्री जी महाराज ने 1948 में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नाम से राजनीतिक दल भी बनाया। इसने वर्ष 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में तीन सीटें भी जीतीं।
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