आज जब अयोध्या में सज रहे नव्य-भव्य मंदिर में रामलला विराजने जा रहे हैं तब स्वाभाविक रूप से श्रीराम रगों में उतर आए हैं हर सांस में समाए हैं। दिग-दिगंत रघुकुल नंदन की जयकार से गूंज रहा।शताब्दियों के बाद प्रभु के अपने धाम में विराजने का उल्लास गांव-गलियों में छलक आया है। ध्वजा पताकाओं से हर राह सज उठी है...
प्रमोद यादव, वाराणसी। अवधपति प्रभु श्रीराम व काशीपुराधीश्वर बाबा विश्वनाथ की आत्मीयता और उनके बीच नेह के वेद-पुराण गवाह हैं। लंका विजय के लिए जाते रघुकुल नंदन रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना करते हैं। इसका अर्थ लक्ष्मण जी को
जो राम के ईश्वर वे रामेश्वर
बताते हैं।
भोले बाबा माता पार्वती से रामेश्वर नाम का अर्थ
राम जिसके ईश्वर वो रामेश्वर
सुनाते हैं। दोनों देवों के पुरवासी भी अपने इष्ट प्रभुओं के स्नेहासिक्त संबंध को मान-सम्मान देते हैं, सिर-माथे
लगाते हैं और शैव-वैष्णव एका की नजीर सामने रख जाते हैं। आज जब अयोध्या में सज रहे नव्य-भव्य मंदिर में रामलला विराजने जा रहे हैं तब स्वाभाविक रूप से श्रीराम रगों में उतर आए हैं, हर सांस में समाए हैं। दिग-दिगंत रघुकुल नंदन की जयकार से गूंज रहा।
शताब्दियों के बाद प्रभु के अपने धाम में विराजने का उल्लास गांव-गलियों में छलक आया है। ध्वजा पताकाओं से हर राह सज उठी है तो शोभायात्राओं में सजे राम के विविध स्वरूप शिव के धाम में अवधपुरी उतर आने का आभास करा रहे हैं।
शिवनगरी और राम का है सदियों पुराना रिश्ता
यह रिश्ता आज का नहीं सदियों पुराना है जब तुलसी बाबा ने रामचरित मानस की चौपाइयों को यहीं पूर्णता दी और राम भक्ति को रामलीलाओं के जरिए जन आंदोलन का रूप दिया। आज भी शिव की नगरी में कार्तिक का पूरा एक मास श्री-हरि के नाम हो जाता है। इसके बाद का पूरा मार्गशीर्ष (अगहन) माह भरत मिलाप, नक्कटैया समेत रामलीला के विविध प्रसंगों के मंचन व लक्खा मेलों के जरिए शिव धाम को राममय कर जाता है।
अब पूस के इस मास में भी वातावरण कुछ वैसा ही है। साथ ही 22 जनवरी को लेकर तैयारियां शिव की नगरी को ‘हरिहर धाम’ बनाने की है। स्वागत का उल्लास कुछ ऐसा है जैसा वनवास से लौट रहे राम जी की सवारी इधर ही आनी है।
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