सोहर की लोकधुन से मिले सामवेद की ऋचाओं को स्वर : पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र
वाराणसी में पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र किराना घराना और बनारस घराना की गायिकी के प्रतिनिधि कलाकार हैं। गायन में भजन संग सत्संग का अनुभव तो होता ही है साथ ही जनमानस के कथाकार के रूप में वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
वाराणसी, जागरण संवाददाता। पद्मविभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्र किराना घराना और बनारस घराना की गायिकी के प्रतिनिधि कलाकार हैं। उनके गायन में भजन के साथ सत्संग का अनुभव तो होता ही है साथ ही जनमानस के कथाकार के रूप में वह चौपाई, राग, ताल, ठुमरी में लचक, कजरी और चैती पर भी चर्चा करके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं...
शब्दब्रह्म की ही उपज हैं साहित्य व संगीत। स्थापित मान्यता यह भी है कि शब्दब्रह्म का प्राकट्य सृष्टि की सर्जना के साथ ही भगवान शिव के डमरू की दिमिक-दिमिक के नादघोष से हुआ। भगवान शंकर के तांडव के बाद जब नवसृष्टि अस्तित्व में आई तो सनकादि ऋषियों के नवोन्मेष की खातिर नटराज ने 14 बार डमरू की ध्वनि की जो इस प्रकार हैं- अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्, ञमङणनम्, झभञ्, घढधष्, जबगडदश्, खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल्। इसी से वर्णमाला व व्याकरण की उत्पत्ति हुई।
कालांतर में सृष्टि जब व्यवस्थित हुई तो शब्द ग्रंथों के पन्नों में बढ़े-पले, वहीं स्वर संगीत की राग-रागिनियों में ढले। अतएव यह अटल अटूट सिद्धांत अटल सत्य के रूप में स्थिर हुआ कि शब्द के बिना स्वर अधूरा है। दोनों के संयोजन से ही परम ब्रह्म का अस्तित्व पूरा है। इसे ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि स्वर के नाभिकीय केंद्र में ही साहित्य का रहस्य छिपा हुआ है।
भारत की सांस्कृतिक मान्यता के अनुसार आज देश में ही नहीं, समूचे विश्व में जो कुछ भी गाया-बजाया जा रहा है, उसका अस्तित्व व आधार नटराज शंकर के डमरू से फूटे 14 सूत्रों के समुच्चय की कालपीठिका पर टिका हुआ है। इसी तरह भाषा, शैली, उच्चारण में अंतर के बाद दुनिया में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसका प्रस्फुटन बिंदु ही भगवान शंकर के डमरू नाद से प्रकट 14 सूत्रीय शब्दकोश है।
भारतीय सांस्कृतिक दर्शन में आदिकाल से एक विलक्षण प्रयोग हमेशा से चलन में रहा कि गेय साहित्य के लेखन के पूर्व या रचना के गढ़े जाने के बाद उन्हें संगीत के त्वरानुशासन में साधा जाए, विभिन्न राग-रागिनियों के सुरीले सुरों में बांधा जाए, फिर वह चाहे गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज द्वारा विरचित 'विनय पत्रिका' हो या वेदों में अग्रगण्य सामवेद की ऋचाएं। दोनों ही रचे जाने के साथ या पश्चात संगीत व साहित्य के अभिन्न संयोजन के साक्षी रूप में स्थापित हुईं।
साहित्य और संगीत का ऐसा सुगढ़ समन्वय एक सर्पमणि की तरह अविछिन्न प्रकाशित रहा। उसका उदाहरण है समावेद के गायन की परंपरा, जिसका आविर्भाव लोकसंगीत के खांटी लोकरीति में प्रचलित 'सोहर' की कर्णप्रिय धुन से हुआ। कथानक है कि ऋषिवर भारद्वाज का एक दिन कतिपय अपरिहार्य कारण से वनप्रांतर में स्थापित आश्रम छोड़कर किसी गांव से गुजरना हुआ। राह में किसी घरबारी गृहस्थ की कुटिया उस समय लोकगीत सोहर के गायन से गुंजरित थी। भारद्वाज ऋषि ने उस लोकरागिनी को आत्मसात किया व आश्रम लौटकर सामवेद की पहली ऋचा को उस लोकधुन में ढाला व लय की पांच जातियों चतुर्ष, खंड, तिश्र, मिश्र व संकीर्ण की कसौटियों पर कसते हुए समूचे सामवेद को गेय प्रधान वेद के रूप में प्रतिष्ठित किया।
इसी तरह तुलसीदास जी महाराज द्वारा रचित 'विनय पत्रिका' संगीत के रागों का अवलंबन प्राप्त कर एक सांगीतिक ग्रंथ (साहित्य) के रूप में विश्वविश्रुत हुई। इस ग्रंथ के कुल 279 पदों को स्वयं गोंसाई जी महाराज ने लेखन के पूर्व कुल 23 रागों का आधार देकर बाद में उन्हें शब्दों में बांधा। इनमें अलग-अलग पदों को क्रमश: राग आसावरी, कल्याण, कान्हड़ा, केदारा, गौरी, जयतश्री, तोड़ी, दंडक, धनाश्री, नट, वसंत, बिलावल, विहाग, भैरव, भैरवी, मल्हार, मारू, रामकली, ललित, विभास, सारंग, सुहो बिलावल तथा सोरठा की अलग-अलग रागिनियों में बांधने के पश्चात पदों को शब्द दिए। हालांकि, बाद में संगीतज्ञों ने इन सभी पदों को अपने प्रयोगों में कई पृथक रागों से भी निबद्ध किया। फिर भी गोस्वामी जी की यह रचना भारतीय संगीत व साहित्य के नैसर्गिक संबंध के पर्याय रूप में ख्यातनामा हुई।
यदि किसी ललित साहित्यिक रचना को उसके मूल भाव के अनुरूप सधे सुरों का अवलंब मिल जाए तो वह किस तरह निखरती है, इसका उदाहरण है मेरी सर्वाधिक चर्चित गायन प्रस्तुति खेले मसाने में होरी, दिगंबर...। होली की पारंपरिक देसज धुन में बांधी गई इस रचना का चमत्कार ऐसा कि होली के चार दिन पहले रंगभरी एकादशी पर भक्तों के साथ होली खेलकर रागमय स्वरूप में नजर आने वाले महादेव अगले ही दिन महाश्मशान में भस्म की होली खेलकर विराग के प्रतीक बन जाते हैं।