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Jaishankar Prasad Death Anniversary : दुकान के रद्दी कागजों से प्रसाद ने की थी लेखन की शुरूआत

हिंदी छायावाद युग के प्रवर्तक जय शंकर प्रसाद की कविताओं और नाटकों की तो खूब चर्चा होती है मगर उनकी कहानियों में ही पहली बार हिंदी में आधुनिक लेखन का सूत्रपात हुआ। प्रसाद जी15 नवंबर 1937 को 48 वर्ष की अल्पआयु में ही अपनी अतिम सांस ली।

By saurabh chakravartiEdited By: Updated: Sun, 15 Nov 2020 01:36 PM (IST)
Jaishankar Prasad Death Anniversary : दुकान के रद्दी कागजों से प्रसाद ने की थी लेखन की शुरूआत
हिंदी छायावाद युग के प्रवर्तक जय शंकर प्रसाद की कविताओं और नाटकों की तो खूब चर्चा होती है!

वाराणसी [हिमांशु अस्थाना] । हिंदी छायावाद युग के प्रवर्तक जय शंकर प्रसाद की कविताओं और नाटकों की तो खूब चर्चा होती है, मगर उनकी कहानियों में ही पहली बार हिंदी में आधुनिक लेखन का सूत्रपात हुआ। ग्राम, घिसू, प्रतिध्वनिे, आकाशदीप, आंधी, इंद्रजाल, उर्वशी, गुंडा, प्रलय और अंतिम कहानी सालवती आज भी बिल्कुल समसामयिक और ज्वलंत लगती हैं। इसके पीछे प्रेरणा उनका व्यक्तिगत दुखमय जीवन और बनारसी जीवनशैली रही। सातवीं कक्षा में जब वे बनारस के क्वींस कालेज में पढ़ाई कर रहे थे, तब पिता के देहांत ने उनका एकेडमिक जीवन से नाता तोड़ दिया। तीन वर्ष बाद माता, फिर भाई और पत्नी के निधन ने उन्हें पूरी तरह से झकझोर दिया। दुकान चलाने की जिम्मेदारी उन पर आ गई, वहां बैठ वह रद्दी कागजों पर कविताओं के रूप में अपनी भावनाओं का गुब्बार लिखने लगे और यहीं से अपने भावों के माध्यम से हिंदी साहित्य की जीवनपर्यंत सेवा की।अपने अंतिम समय में जब वह बीमार थे, तो उनके खास मित्रों ने बनारस के बाहर इलाज करवाने की काफी चेष्टा की, मगर उन्होंने काशी को छोडऩा कभी स्वीकार ही नहीं किया। 15 नवंबर, 1937 को 48 वर्ष की अल्पआयु में ही उन्होंने अपनी अतिम सांस ली। उस दौरान हरिशचंद्र घाट पर उनकी अंत्येष्टि में हजारों लोगों की भीड़ जमा रही।

प्रसाद जी रहे जागरण पाक्षिक पत्र के संपादक

प्रसाद जी की जीवनी लिखने वाले उनके मित्र विनोदशंकर व्यास की पुस्तक के अनुसार फरवरी 1929 में बनारस के पुस्तक मंदिर से जागरण पाक्षिक पत्र का प्रथम अंक शुरू हुआ। संपादन करने वाले प्रसाद जी ने ही इसका नाम जागरण दिया था।इसी में उन्होंने लिखा था कि अपवित्रता, असत और दुष्चरित्र कला का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। बाद में इस पत्र का संपादन मुंशी प्रेमचंद ने किया।

बुद्धि पर स्थापित की ह्दय की सत्ता

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पौत्री व साहित्यकार डा. मुक्ता के अनुसार अपनी कहानियों में प्रसाद जी काफी मुखर रहे। ममता और घींसू में महिलाओं की स्थिति से लोगों को दिलों को झकझोरा और ये कहानियां आज भी तर्कसंगत हैं। बीएचयू में हिंदी विभाग के साहित्यकार प्रोफेसर सत्यपाल शर्मा के अनुसार कामायनी में उन्होंने बुद्धि के साथ ह्दय के सामंजस्य पर जोर देकर ह्दय की सत्ता को स्थापित किया। बीसवीं सदी में मनुष्य जिस संवेदना के विच्छेद का शिकार हो रहा था, उसे प्रसाद जी ने अपने साहित्य से भरसक दूर करने का प्रयास किया।

किसी भी पत्र-पत्रिका से नहीं लेते थे पैसे

प्रसाद जी ने अपने साहित्यिक जीवन में किसी भी पत्र-पत्रिकाओं से पुरस्कार स्वरूप मिले धन को स्वीकार नहीं किया। हिंदुस्तानी एकेडमी से 500 और नागरी प्रचाारिणी से 200 रुपये की राशि मिली थी, वह भी नागरी प्रचाारिणी को सौंप दी। इसके अलावा उन्होंने किसी कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करना या किसी सभा का सभापति होना स्वीकार नहीं किया।

1933 में पहली बार शुक्ल जी, प्रसाद व मुंशी जी आए एक साथ

1933 में पहली बार बनारस में प्रसाद परिसर की बैठक में जवाहरलाल नेहरू, कमला नेहरू, संपूर्णानंद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद एक साथ मिले। इस सभा में नेहरू जी ने कहा था कि ङ्क्षहदी को भी बांग्ला भाषा की तरह से समृद्धता के लिए अभी और कार्य करना पड़ेगा। इस पर बाद में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा कि जिस सभा के साक्षी आचार्य शुक्ल, मुंशी जी और प्रसाद रहे हों, वहां पर ङ्क्षहदी के लिए ऐसे बोल व्यावहारिक नहीं।

मुंशी प्रेमचंद और प्रसाद जी के लेखन दृष्टिकोण में भले ही अंतर रहें हों, लेकिन दोनों के बीच काफी बेहतर तालमेल थी। कंकाल जब प्रसाद जी ने लिखी तब प्रेमचंद ने आत्मीय रूप से उनसे जुड गए। प्रसाद जी ने अपने जीवन में जो भी चरित्र निभाया, उसे साहित्य का रूप दिया।  बनारस की रहन-सहन और जीवनशैली को सबसे बेहतर उन्होंने ही चित्रित किया है। उनके सिद्धांत शैव दर्शन से जुड़े हुए थे, जिसके आधार पर उन्होंने कामायनी की रचना की। देशप्रेम व राजनैतिक पहलू उनके नाटकों में देखने को मिलती है। अपने अंत समय में फिल्म निर्माण में भी रूचि दिखाई, लेकिन वह पूर्ण न हो सका।-प्रो. ओ पी ङ्क्षसह

- अध्यक्ष, भारतीय भाषा केंद्र,जेएनयू नई दिल्ली