Kashi Hindu University : स्वतंत्रता के महासमर में शिक्षा का शंखनाद, BHU का रहा है गौरवशाली अतीत
Kashi Hindu University काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या महामना की बगिया बीएचयू का देश की आजादी से लेकर देश निर्माण में अपना अलग ही महत्व रहा है। आाजादी की लड़ाई में बीएचयू हर मोड़ पर देश के साथ अडिग रहा है।
By Abhishek SharmaEdited By: Updated: Sun, 26 Sep 2021 05:47 PM (IST)
वाराणसी, [शाश्वत मिश्रा]। जितनी प्राचीन और पवित्र है काशी नगरी, स्वतंत्रता संग्राम में उतना ही गौरवशाली इतिहास है यहां स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU ) का। आजादी की लड़ाई के हर मोड़ पर यह विश्वविद्यालय देश के साथ अडिग खड़ा रहा। भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाकर स्वतंत्रता संग्राम को नया आयाम देने वाले इस संस्थान पर विशेष रिपोर्ट...
जिस समय महामना मदन मोहन मालवीय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का सपना देखा, उस समय पूरा देश अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों में कसमसा रहा था। कहीं न कहीं देश का यह दुख महामना को भी विचलित करता था। तभी तो उन्होंने वेद व्यास के जिस श्लोक को विश्वविद्यालय के दर्शन का आधार बनाया उसमें भी लोगों के सभी तरह के कष्ट समाप्त होने की इच्छा निहित थी। यह श्लोक है :न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।।
इसका भावार्थ है- ‘हे प्रभु! मुझे राज्य की कामना नहीं, स्वर्ग-सुख की चाह नहीं तथा मुक्ति की भी इच्छा नहीं है। एकमात्र इच्छा यही है कि दुख से संतप्त प्राणियों का कष्ट समाप्त हो जाए।’
जाहिर सी बात है कि उस समय पूरे देश की गुलामी इसका सबसे बड़ा दुख था। इस गुलामी के दुख से उपजे कई दुखों को दूर करने का सपना महामना ने इसी विश्वविद्यालय के माध्यम से देखा था। इसमें सबसे मुख्य था अज्ञानता और अशिक्षा का दुख। महामना भविष्यदृष्टा थे। वे जानते थे कि आज नहीं तो कल भारत को आजादी मिल जाएगी, लेकिन आजादी के बाद अशिक्षा और अज्ञानता की गुलामी से कौन लड़ेगा? इसके लिए उन्होंने आजादी के बहुत पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। उस समय आजादी की लड़ाई मुख्य रूप से दो विचारधाराओं में विभाजित थी-नरम दल और गरम दल। काशी हिंदू विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह थी जहां दोनों दलों को समान प्रश्रय मिलता था। महामना खुद जहां नरम दल के थे वहीं उनके प्रांगण में भगत सिंह ने भी इंकलाब की अलख जगाई थी।
उद्घाटन समारोह में गांधी जी : भारत के स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र मोहनदास करमचंद गांधी के बिना अधूरा है। उन्हीं गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका से वापस आने पर पहला सार्वजनिक मंच इसी विश्वविद्यालय ने प्रदान किया था। 4 फरवरी, 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ। इसी क्रम में 6 फरवरी को आयोजित कार्यक्रम में महात्मा गांधी ने भारत में अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया। उस दिन मौसम तो ठंडा था, लेकिन गांधी जी के मंच पर आते ही माहौल ऊष्मा से भर गया था। उस दिन मंच पर भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग भी मौजूद थे। वो विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने आए थे। समारोह की अध्यक्षता महाराज दरभंगा रामेश्वर सिंह कर रहे थे। मंच पर एनी बेसेंट और मालवीय जी भी थे। सामान्य कद-काठी के गांधी जी को उस समय भारत में बहुत प्रसिद्धि नहीं मिली थी। महामना के बुलाने पर जब वो मंच पर आए तो सबसे पहले उन्होंने कार्यक्रम का आयोजन अंग्रेजी में कराने की आलोचना की। इससे पहले वायसराय के मुंह पर किसी ने इस तरह दो-टूक बातें नहीं कही थीं। इससे वहां मौजूद अंग्रेजों के अलावा भारतीय राजा-महाराजाओं के भी होश फाख्ता हो गए। एनी बेसेंट समेत कई आयोजकों को लगा कि छात्र कहीं कार्यक्रम का बहिष्कार न कर दें। उन्होंने मंच से ही समारोह में बहुमूल्य आभूषण पहने बड़ी संख्या में देश के राजा-महाराजाओं द्वारा धन और वैभव के भोंडे प्रदर्शन पर उनको भी खरी खोटी सुनाई। गांधी जी ने उन्हेंं भारत के गरीबों का ध्यान दिलाया और कहा कि जब तक आप लोग इसे गरीबों की अमानत समझकर अपने पास नहीं रखेंगे तब तक इस देश की मुक्ति संभव नहीं है। इतना सुनने के बाद महाराज अलवर जय सिंह अपना विरोध दर्ज कराते हुए समारोह से चले गए। इसके बाद गांधी जी ने भारत की मुक्ति के बारे में चर्चा करते हुए किसानों के साथ खड़े होने की बात कही।
महामना, विश्वविद्यालय और भगत : भगत सिंह का काशी से पुराना नाता था। यहां के शचींद्रनाथ सान्याल के संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ने जहां उनके क्रांतिकारी विचारों को मंच प्रदान किया, वहीं इसको मजबूत बनाने के लिए वे विश्वविद्यालय भी आ चुके थे। एसोसिएशन ने एक बार जयदेव कपूर को संगठन के विस्तार के उद्देश्य से बनारस भेजा। यहां उन्हें नए क्रांतिकारियों की भर्ती करनी थी। इसमें काफी लंबा समय लगा। उन्होंने बीएससी का कोर्स पूरा किया और आगे की पढ़ाई के लिए इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन लिया। इसी समय भगत सिंह भी विश्वविद्यालय पहुंचे और जयदेव के साथ कुछ दिनों तक लिम्डी हास्टल में ठहरे थे। इस दौरान उन्होंने संगठन को मजबूत करने पर काम किया। महामना के मन में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के लिए अपार प्रेम और श्रद्धा थी। उनको जब पता चला कि इन तीनों सपूतों को फांसी की सजा दी जानी है तो पूरे देश की तरह वे भी बेचैन हो गए। इसके बाद 14 फरवरी, 1931 को वो खुद लार्ड इरविन के पास एक दया याचिका लेकर गए। इसमें उन तीनों की फांसी पर रोक लगाने और उनकी सजा कम करने का आग्रह किया गया था।
डा. राधाकृष्णन ने तोड़ा गुरूर : विश्वविद्यालय में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की नियुक्ति के करीब डेढ़ साल बाद भारत छोड़ो आंदोलन का उद्घोष भी हो गया था। उस दौरान बीएचयू पूर्वांचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का बड़ा केंद्र बन गया था। आजादी के मतवालों की हिम्मत तोड़ने के लिए तत्कालीन बीएचयू गवर्नर माएरिस हैलेट ने विश्वविद्यालय के अनुदान को ही खत्म कर दिया। यह डा. राधाकृष्णन के लिए मुश्किल घड़ी थी, लेकिन महामना में गहरी आस्था रखने वाले डा. राधाकृष्णन ने उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए इस मुश्किल को दूर करने का निर्णय लिया। उन्होंने चंदा मांगना शुरू किया और इस मुसीबत का हल निकाला। इतना ही नहीं उन दिनों एक बार तत्कालीन कुलपति डा. राधाकृष्णन ने विश्वविद्यालय परिसर में अंग्रेज अधिकारियों को प्रवेश की अनुमति न देकर अपने दृढ़ होने का परिचय दिया था।
भारतीय भाषाओं के हथियार से हराया अंग्रेजी को : देसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आदर्शों में एक था, ताकि अधिक से अधिक युवा शिक्षित होकर राष्ट्र सेवा के प्रकल्प से जुड़ सकें। इस दिशा में कला संकाय की ओर से 17 मार्च, 1922 को सीनेट से सर्वसम्मति से सिफारिश की गई कि प्रवेश परीक्षा में अभ्यर्थियों को अंग्रेजी विषय को छोड़कर सभी विषयों के प्रश्नपत्र का जवाब भारतीय भाषाओं में देने का विकल्प दिया जाए। 24 अप्रैल, 1922 को सीनेट ने इसे स्वीकृति दे दी। पराधीन भारत में ब्रिटिश सत्ता जब अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से देश पर हुकूमत करना चाह रही थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय का देसी भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना महत्वपूर्ण कदम था।
आंदोलन में आगे आए छात्र : ‘1930 में महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह की शुरुआत की। इसका प्रभाव काशी हिंदू विश्वविद्यालय पर भी पड़ा। इस दौरान विश्वविद्यालय के छात्रों ने विदेशी वस्तुओं आदि के बहिष्कार के समर्थन में प्रदर्शन किया। स्वदेशी खादी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से खादी वस्त्रों को अपनाया और विश्वविद्यालय परिसर में ही खादी ग्रामोद्योग की दुकान स्थापित की गई। 1 अगस्त, 1930 को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में पंडित मदन मोहन मालवीय, डी.जे. पटेल, जयराम दास, दौलतराम, कमला नेहरू, मनीबेन सहित अनेक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे देश में हलचल मच गई थी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लगभग 100 विद्यार्थियों का एक जत्था बीए सुंदरम के नेतृत्व में 4 अगस्त की रात मुंबई रवाना हुआ। अंतत: महामना को उसी दिन रिहा कर दिया गया। 27 अगस्त, 1930 को दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उपस्थित अन्य सदस्यों सहित महामना फिर गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें छह माह कैद की सजा हुई। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों, शिक्षकों, कर्मचारियों ने अत्यंत कठिन दौर का सामना किया और उन्हें अंग्रेजी शासकों का कोप भाजक बनना पड़ा था।’ - डा. बाला लखेंद्र, कार्यक्रम समन्वयक, एनएसएस, बीएचयू।
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