काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया था मन्नू भंडारी ने, 1951 से 53 तक बनारस में किया था प्रवास
हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन की प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी में साहित्य का बीज पुष्पित-पल्लवित होने में काशी की धरती का बड़ा योगदान रहा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1953 में उन्होंने हिंदी में एमए किया था। उसी दौर में काशी के साहित्यिक जगत ने उन्हें काफी प्रभावित किया था।
By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Mon, 15 Nov 2021 07:08 PM (IST)
वाराणसी, शैलेश अस्थाना। हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन की प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी में साहित्य का बीज पुष्पित-पल्लवित होने में काशी की धरती का बड़ा योगदान रहा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1953 में उन्होंने हिंदी में एमए किया था। उसी दौर में काशी के साहित्यिक जगत ने उन्हें काफी प्रभावित किया था। प्रख्यात कहानीकार और उपन्यास लेखक डा. शिवप्रसाद सिंह की वह सहपाठिनी रहीं थीं। यह रहस्योद्घाटन स्वयं डा. सिंह ने वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्य सर्जक डा. सुरेश्वर त्रिपाठी को दिए एक साक्षात्कार में किया था। डा. सिंह का वह साक्षात्कार ‘काशी प्रतिमान’ में प्रकाशित हुआ था। उनके निधन की सूचना मिलते ही यहां के साहित्यिक जगत में शोक की लहर दौड़ गई।
प्रो. अवधेश प्रधान बताते हैं कि गुरुदेव (डा. सिंह) ने उस साक्षात्कार में मन्नू भंडारी की कुछ निजी भावनाओं के संबंध में भी चर्चा की थी, जिसे लेकर उनकी बड़े पैमाने पर आलोचना भी हुई थी। ‘स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानी’ पर गहन शोध करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. बलिराज पांडेय कहते हैं कि मन्नू भंडारी के निधन से एक युग का अवसान हो गया। स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानी धारा में नई कहानी आंदोलन की लेखिका त्रयी (मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती व उषा प्रियंवदा) में मन्नू भंडारी सबसे सशक्त कहानीकार के रूप में जानी जाती हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में मध्यम वर्ग व उच्च मध्य वर्ग के पात्रों को लिया है तथा उनकी मनोभावनाओं को जिक्र किया है। उनकी कहानी ‘यही सच है’ पर हिंदी में ‘रजनीगंधा’ तथा अन्य कहानियों पर ‘जीना यहां’ फिल्म भी बनी थी।
राजेंद्र ले गए थे अपने घर, मन्नू ने खिलाया था अपने हाथ से खाना : काशीनाथ सिंह
प्रख्यात साहित्यकार डा. काशीनाथ सिंह मन्नू भंडारी के निधन की खबर सुन हतप्रभ थे। उन्होंने कहा कि एक हिंदी साहित्य में नई कहानी धारा की एक सशक्त हस्ताक्षर थीं वह। मन्नू भंडारी का नाम याद आते ही उन्हें लगभग पांच दशक पूर्व खाया गया उनके हाथों के खाने का स्वाद याद आ जाता है। कहते हैं कि उन दिनों दिल्ली बड़े भैया (डा. नामवर सिंह) के यहां गया था। वहां राजेंद्र यादव आए थे। यह 1970 के आसपास की बात है। उन दिनों राजेंद्र और मन्नू में विवाह के बाद साथ ही रहते थे (बाद में उनका अलगाव हो गया था)। राजेंद्र अपने साथ हमें अपने घर खाने पर ले गए। हम दोनों भाइयाें के साथ एक उड़िया लेखक भी थे। वहां मन्नू भंडारी ने अपने हाथों से खाना बनाया और गरम-गरम खिलाया।
वह पूरी तरह से व्यवहार कुशल, सहज तथा घर पर एक नितांत घरेलू स्वभाव की महिला थीं। उस दौरान भैया (डा. नामवर सिंह), राजेंद्र यादव और उड़िया लेखक के बीच साहित्य को लेकर लगातार विमर्श चल रहा था, वह बीच-बीच में वार्ता में हस्तक्षेप करतीं किंतु उनका सारा ध्यान भोजन को समय से बनाने और गरम-गरम खिलाने पर लगा हुआ था। उनका स्वभाव सहज और गंभीर था जबकि राजेंद्र यादव का इसके विपरीत, इसीलिए दोनों में ज्यादा दिनों तक पटी नहीं और वे अलग रहने लगे। अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए वह साहित्य जगत में सदैव अमर रहेंगी।
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