दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक जो वक्त के साथ चलकर भी रुका सा महसूस होता है, जो दिल में तो आता है पर समझ में नहीं आता। इतना अनछुआ है कि आप छू नहीं सकते, बस गंगा जल की तरह अंजुली में भर सकते हैं। धार्मिक नहीं आध्यात्मिक शहर है यह, जहां जीवन और मृत्यु साथ-साथ चलते हैं।
अपने शहर को शानदार बनाने की मुहिम में शामिल हों, यहां करें क्लिक और रेट करें अपनी सिटी भांति-भांति के विचारक बैठे हैं यहां। ज्ञान गंगा बह रही है, चाय चल रही है और पान की गिलौरियां धड़ाधड़ मुंह में गायब हो रही हैं। कहा भी जाता है, ‘बनारस में सब गुरु, केहू नाहीं चेला।’ इसलिए बनारस को कृपया उसकी टूटी सड़कों और गंदी गलियों से न देखें। हल्की फुल्की बातों में भी बनारस जीवन का मर्म बता देता है। नेहरू बनारस को पूर्व दिशा का शाश्वत नगर मानते थे। बनारस और बनारसी किसी भी परिभाषा से परे है। बनारस जीने का नाम है। अपने भीतर उतरने का मार्ग है।
बनारस देखना है तो घाटों पर समय बितायें और पक्के महाल जाएं। सड़क किनारे चाय की बैठकी में शामिल हों। फूलों का व्यापार हो या साड़ियों और मोतियों का, बनारसी कला की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है। सच पूछिए तो गाइड के साथ घूमने का शहर नहीं है बनारस। बनारस वह समंदर है जहां मोती वाली सीप खुद डूबने पर ही मिलेगी। मोती यानी उल्लास, उमंग, संगीत, साहित्य, कला, भोजन और सबसे बढ़कर जीवन का सार। ...और एक जीवन भी कम है बनारस की यात्रा के लिए!
एक सभ्यता बसती है यहां हर युग में काशी आध्यात्म, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र रहा। किसी मत का प्रवर्तन करना हो या उसका खंडन सब काशी आकर ही होता था। यह प्रयोग भूमि के रूप में जाना गया। बुद्ध ने ज्ञान बोध गया में प्राप्त किया पर धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए ऋषि पत्तन यानी सारनाथ, वाराणसी आए। तुलसी यहीं पर राम के गीत गाते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के लिए गागा भट्ट काशी से जाते हैं। महान विचारक, स्वतंत्रता सेनानी, कर्मयोगी भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी यहीं काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। कह सकते हैं जिसे काशी ने स्वीकार किया, वह जग का हो गया। दरअसल, काशी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संवाद की प्रयोगशाला रही है। यहां विरोध के साथ-साथ स्वीकृति भी समान रूप से मौजूद है। वाराणसी सिर्फ एक शहर नहीं सभ्यता है।
गली-गली खाना खजाना केवल भारत नहीं, दुनिया भर में मशहूर है इस शहर का खानपान। कोई गली कचौड़ी जलेबी के लिए प्रसिद्ध है तो कोई मलाईयों के लिए। कहीं रस मलाई तो कहीं चटपटी चाट। व्यंजनों के मामले में हर गली-मोहल्ले खास हैं। पक्के महाल के चौखंभा में ‘राम भंडार’ की कचौड़ी का स्वाद लेने के लिए सुबह से ही ग्राहकों की कतार लगती है। इसके अलावा कचौड़ी गली में राजबंधु की प्रसिद्ध मिठाई की दुकान में काजू की बर्फी, हरितालिका तीज पर केसरिया जलेबी व गोल कचौड़ी, ठठेरीबाजार में श्रीराम भंडार की तिरंगी बर्फी के क्या कहने। केदारघाट की संकरी गलियों में दक्षिण भारत का स्वादिष्ट व्यंजन इडली व डोसा भी दक्षिण भारत की ही याद दिलाता है। चटपटी चाट के लिए जहां काशी चाट भंडार, अस्सी के भौकाल चाट, दीना चाट भंडार और मोंगा आदि काफी लोकप्रिय है, वहीं, ठठेरी बाजार की ताजी और रसभरी मिठाइयों को दुनियाभर में पसंद किया जाता है। अगर आपको दूध, दही और मलाई रास आती है तो बनारस जाकर 'पहलवान की लस्सी' जरूर पिएं।
गंगा स्नान: अटूट रिश्ता वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी से अटूट रिश्ता है। ऐसा माना जाता है कि गंगा नदी में डुबकी लगाने से आत्मा पवित्र होती है और सारे पाप धुल जाते हैं। बनारस जाकर गंगा में डुबकी लगाना बनारस की सैर के कुछ खास कामों में से एक है। बाबा भोलेनाथ की नगरी बनारस, घाट और मंदिरों के लिए जाना जाती है इसलिए अगर आप बनारस गए और वहां के प्रमुख मंदिरों में दर्शन करने नहीं गए तो आप की यात्रा अधूरी रह ही जाएगी। बनारस का सबसे प्रमुख मंदिर है 'काशी विश्वनाथ मंदिर' इसके दर्शन करने दूर-दूर से लोग आते हैं। बनारस के घाट पर शाम को होने वाली गंगा आरती का नजारा वाकई अद्भुत होता है। शाम को बड़ी संख्या में लोग इस आरती को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं।
अलग पहचान: कोने-कोने में कलाकार संगीत की दुनिया में बनारस घराना अपनी अलग पहचान रखता रहा है। कबीरचौरा से रामापुरा तक पुराने बनारस के इर्द-गिर्द फैले क्षेत्र में दशकों नहीं वरन शताब्दियों से दिन-रात इन घरानों से संगीत के सुर फैलते रहे हैं। शिव की नगरी काशी के कोने-कोने में रचते-बसते और जन्मते रहे हैं कलाकार। बनारस ‘चार पट’ की गायिकी के लिए प्रसिद्ध रहा है। इस घराने के गायक धुरपद-धमार, ख्याल, ठुमरी व ठप्पा चारों में महारत रखते रहे हैं। पुराणों में उल्लिखित पंचक्रोशी यात्रा रूट पर हर पांच कोस (15 किमी) पर पांच पड़ाव हैं। इन स्थलों पर देवालयों-धर्मशालाओं के साथ इतिहास को समझ सकते हैं। बनारस भले ही हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता हो लेकिन यहां जैन धर्म के चार तीर्थंकरों के भी स्थल हैं। इनमें सारनाथ में श्रेयांसनाथ, चंद्रावती में चंद्रप्रभु तो शिवाला व भेलूपुर में जैन तीर्थंकरों की स्थलियां हैं। भदैनी (अस्सी) पर रानी लक्ष्मी बाई की जन्म स्थली गर्वानुभूति कराती है। काशी की बेटी की स्मृतियों को संजोते हुए पर्यटन विभाग की ओर से इसे सजाया संवारा गया है। वाराणसी से आजमगढ़ रोड पर शहर से तीन किलोमीटर दूर मुंशी प्रेमचंद की जन्म स्थली लमही स्थित है। उनके भवन के साथ ही स्मारक को भी संरक्षित किया गया है। काशीराज परिवार की देशभक्ति की गाथा स्वरूप चेत सिंह किला शिवाला में गंगा तट पर है। राजा चेत सिंह के प्रताप से वारेन हेस्टिंग्स को भागना पड़ा। तीन अंग्रेज अफसरों के साथ ही दो सौ सैनिक भी मारे गए, आज भी इसके चिह्न यहां मौजूद हैं। प्रकृति की मनोरम छटा का दर्शन करना हो तो चंदौली के चकिया आइए। मुख्यालय से 45 किमी दूर पहाड़ों के बीच राजदरी व देवदरी जल प्रपात मन मोह लेगी। चंद्रप्रभा वन्य जीव विहार भी आकर्षण का केंद्र है। मीरजापुर के चुनार में महाराज विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया किला पूरा इतिहास समेटे है। इसमें भर्तृहरि की समाधि के साथ ही स्थापत्य कला भी देखने योग्य है। गंगा से तीन ओर से घिरे किले को राज्य पुरातत्व विभाग ने संरक्षित किया है।
तीनों लोकों का भू-विन्यास
12 काल, नौ दिशा, तीन लोक और यहां पर हैं 324 शिव के मुख्य लिंग काशी को ऐसे ही धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक राजधानी नहीं कहा जाता है। तीनों लोकों का भू-विन्यास यानी वैज्ञानिक भाषा में कहा जाए तो स्पेस भी यही पर है। कालांतर में काशी ही एकमात्र ऐसा नगर है जो ज्यों का त्यों स्थापित है। काशी में ऐसी मान्यता है कि कण-कण में शिव का वास है। प्राचीन पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि यहां प्रमुख रुप से 324 शिव मुख्य लिंग है। यही नहीं भारतीय प्राचीन वांगम्य नीति वैज्ञानिक पत्र प्राचीन ऋषियोंके सूर्य के प्रतिमान काशी में एक विशिष्ट वैज्ञानिक आधार स्थापित करते हैं। नगर में सूर्य के कुल 14 मंदिर हैं। बनारस में ही बनारसी भोजपुरी कबीरचौरा, गायघाट, बड़ी बाजार और मदनपुरा में अलग-अलग पुट लेती है। गौर करें तो बनारसी बोली अंदर-बाहर का एका दिखाती है, मन मिजाज भी बताती है।
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