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भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की 106 वी जयंती पर वाराणसी में दरगाह-ए-फातमान पर चढ़ाए अकीदत के फूल

वाराणसी में दरगाह-ए-फातमान में सोमवार को शहनाई सम्राट भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की 106 वी जयंती मनाई गई। इस मौक़े पर मौजूद उस्ताद के स्वजन और कद्रदानो ने उनके मजार पर अकीदत के फूल चढ़ाएं और दुआ-ए- खैर मांगी। इसके पूर्व उनके मकबरे पर फातिहा पढ़कर कुरानख्वानी हुई।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Mon, 21 Mar 2022 01:18 PM (IST)
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फातमान स्थित भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की कब्र पर फातिहा पढ़ते परिजन व पुष्प अर्पित करते लोग।
जागरण संवाददाता, वाराणसी : दरगाह-ए-फातमान में सोमवार को शहनाई सम्राट भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की 106 वी जयंती मनाई गई। इस मौक़े पर मौजूद उस्ताद के स्वजन और कद्रदानो ने उनके मजार पर अकीदत के फूल चढ़ाएं और दुआ-ए- खैर मांगी। इसके पूर्व उनके मकबरे पर फातिहा पढ़कर कुरानख्वानी हुई।

कार्यक्रम संयोजक शकील अहमद जादूगर ने कहा कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक व भारत मां के सच्चे सपूत थे। इतने महान कलाकार होते हुए भी जिस सादगी का जीवन वह व्यतीत करते थे वह सदैव प्रेरणा देता रहेगा। बताया कि बिस्मिल्ला खां का जन्म पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां बिहार के डुमरांव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में हुआ था। वह भारत मां के सच्चे सपूत थे। जंयती समरोह के मौके पर उस्ताद की बड़ी बेटी जरीना फातिमा, नातिन कैकसा, पोते परवेज हसन के अलावा आफाक हैदर, जावेद व गाजी अब्बास समेत अन्य कद्रदान मौजूद रहे।

उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खां का जन्‍म 21 मार्च को बिहार के डुमरांव में एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में हुआ था। हालांकि, उनके जन्‍म के वर्ष के बारे में मतभेद है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्‍म 1913 में हुआ था और कुछ 1916 मानते हैं। उनका नाम कमरुद्दीन खान था। वे ईद मनाने मामू के घर बनारस गए थे और उसी के बाद बनारस उनकी कर्मस्थली बन गई। उनके मामू और गुरु अली बख्श साहब बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे और वहीं रियाज भी करते थे। यहीं पर उन्‍होंने बिस्मिल्‍लाह खां को शहनाई सिखानी शुरू की थी। बिस्मिल्‍लाह खां अपने एक दिलचस्‍प सपने के बारे में बताते थे, जो इसी मंदिर में उनके रियाज करने से जुड़ा है। एक किताब में उनकी जुबानी ये किस्सा है। इसके मुताबिक, उनके मामू मंदिर में रियाज के लिए कहते थे और कहा था कि अगर यहां कुछ हो, तो किसी को बताना मत।

हमेशा मां सरस्वती को पूजते थे

बिस्मिल्लाह साहब शिया मुस्लिम होने के बावजूद वे हमेशा मां सरस्वती को पूजते थे। उनका मानना था कि वे जो कुछ हैं, वो मां सरस्वती की कृपा है। करीब 70 साल तक बिस्मिल्लाह साहब अपनी शहनाई के साथ संगीत की दुनिया पर राज करते रहे। आजादी के दिन लाल किले से और पहले गणतंत्र दिवस पर शहनाई बजाने से लेकर उन्होंने हर बड़ी महफिल में तान छेड़ी। उन्होंने एक हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ में भी शहनाई बजाई, लेकिन उन्हें फिल्म का माहौल पसंद नहीं आया। बाद में एक कन्नड़ फिल्म में भी शहनाई बजाई। ज्यादातर बनारसियों की तरह वे इसी शहर में आखिरी सांस लेना चाहते थे। 17 अगस्त 2006 को वे बीमार पड़े। उन्हें वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में भर्ती कराया गया। दिल का दौरा पड़ने की वजह से वे 21 अगस्त को दुनिया से रुखसत हो गए

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