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गद्दी पर नहीं जनमानस पर राज, ऐसे थे राजाधिराज काशिराज डा. विभूति नारायण सिंह

लोग अक्सर कहते हैैं कि किसी भी व्यक्ति की लोकप्रियता उसके व्यक्तित्व व कृतित्व का सही आकलन उस शख्स के गुजर जाने के बाद अंतिम यात्रा में शामिल लोगों की संख्या से होता है। यहां तो ऐसा आलम कि राजा साहब को अंतिम विदा देने शहर ही उमड़ आया था।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Fri, 05 Nov 2021 06:40 AM (IST)
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जनमानस पर राज था राजाधिराज काशिराज डा. विभूति नारायण सिंह का
वाराणसी, कुमार अजय। 25 दिसंबर, 2000 की ठिठुरती शाम। काशी नगरी हर रोज की तरह अपनी रौ में। शाम ढलने से पहले ही नगर के किसी स्थान से कातर आवाज आई- 'काशी अनाथ भयल रजऊ, राजा साहेब शिवलोक सिधार गइलन भाई...। बेतार के तार की तरह यह शोक संदेश बड़े वेग से टोले-मुहल्ले लांघता आगे बढ़ता गया। नगर का चप्पा-चप्पा घनघोर उदासी व नैराश्य के सर्द बंधों में जकड़ता गया। मानो वक्त ठहर गया हो। रास्ते थम गए। बाजारों में पसर गया बोझिल सन्नाटा। आंखों में नमी, दिल में बिछोह की पीड़ा। लोग जहां थे, वहीं बेलम (ठिठक) गए। स्तब्धता के कुछ लमहों के बाद लोग जब सज्ञान हुए, फिर तो पूरे शहर में हाहाकार की स्थिति। समाचार तब तक पुष्ट हो चुका था कि काशीवासियों की आंखों के तारे, उनकी आन-बान-शान के रखवाले राजा साहेब यानी पूर्व काशिराज डा. विभूति नारायण सिंह अब नहीं रहे। शिवपुरी व यहां के रहनवारों के लिए यह समाचार वज्रघात जैसा था। शाम ढलने तक गंगापार रामनगर दुर्ग से लगायत नगर की नदेसरी कोठी तक सड़कें-गलियां शोकाकुल लोगों की भीड़ से ठकच गईं।

हर जुबां पर बयान, न देखा कभी ऐसा पयान

लोग अक्सर कहते हैैं कि किसी भी व्यक्ति की लोकप्रियता उसके व्यक्तित्व व कृतित्व का सही आकलन उस शख्स के गुजर जाने के बाद उसकी अंतिम यात्रा में शामिल लोगों की नफरी (संख्या) से होता है। यहां तो ऐसा आलम कि राजा साहब को अंतिम विदा देने समूचा शहर ही उमड़ आया था। अंतिम संस्कार महाश्मशान मणिकर्णिका घाट की चरण पादुका पर। दिल को तसल्ली देने के लिए ही सही बनारस वालों की सघन कतार, उधर सोनारपुरा तो इधर मैदागिन कबीरचौरा तक। बुजुर्गवारों के कहे के अनुसार महामना मालवीय की अंतिम यात्रा के बाद यह दूसरा ऐसा अवसर था कि तन और मन से भी लाखों की भागीदारी किसी दिवंगत काशिकेय के महाप्रयाण की साक्षी बनी।

यशस्वी कृतित्व ने गढ़ा ऐसा व्यक्तित्व

राजा साहब की पुण्य जयंती पर प्रस्तुत इस आलेख का पहला सिरा उनके महाप्रयाण से जोडऩे का मंतव्य सिर्फ इतना कि काशीवासियों के मन में उनके लिए कितनी श्रद्धा, कितना मान और कितना नेह था, इसे सही अर्थों में समझा जा सके। सच बात तो यह है कि राज-पाट रहा तब भी और नहीं रहा तब भी, सचल विश्वनाथ के रूप में पूर्व काशिराज डा. विभूति नारायण सिंह 'बहादुर काशी की जनता के लिए सदा-सर्वदा न केवल अभिनंदनीय बल्कि काशीपुराधिपति महादेव की ही तरह वंदनीय भी रहे। जो स्नेह और आदर उन्हें काशावासियों से मिला वह मिसाल है। राजा साहब ने अपना यह सहज-सरल व्यक्तित्व यशस्वी कृतित्वों से खुद गढ़ा था। यही कारण था कि जिस राह से वह गुजरते थे, वहां का पूरा माहौल हर-हर महादेव के उद्घोष से गूंज जाता था। काशीवासी उनके इस व्यक्तित्व में साक्षात विश्वनाथ का दर्शन पाता था।

वेद के अध्येता व सनातन धर्म दर्शन के दक्ष वेत्ता थे काशिराज

वेदों के महापंडित स्व. राजराजेश्वर शास्त्री द्रविड़ के वह पटशिष्य रहे। पूर्व काशिराज वेदों के ज्ञाता होने के साथ ही अधुना ज्ञान-विज्ञान के अध्येता भी रहे। काशी ङ्क्षहदू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के मान, उनकी विद्वता और पाडित्य ने उनके किरदार को एक अलग ही आभामंडल दिया। जनता के बीच आने पर पूरी विनयशीलता के साथ जनमानस को अर्पित उनका करबद्ध प्रणाम सहज ही काशीवासियों का दिल जीत लेता था, उन्हें असीम ऊर्जा देता था।

वैदिक परंपरा की पहरेदारी, जन उत्सवों में अनिवार्य भागीदारी

काशी के कई परंपरागत व प्रमुख पर्वोत्सवों में डा. विभूति नारायण सिंह की भागीदारी अनिवार्य हुआ करती थी। दरअसल, यही वह डोर थी जो बनारस वालों के मन से सीधी जुड़ती थी। रामनगर की विश्वप्रसिद्ध रामलीला, नाटी इमली का भरत मिलाप, तुलसी घाट की नाग नथैया व ध्रुपद मेला, पंचगंगा का देवदीपावली उत्सव, गौतमेश्वर पूजनोत्सव के साथ कठिन पंचकोसी यात्रा आदि कुछ ऐसे अवसर थे जिनमें काशीवासी पलक-पांवड़े बिछाए उनकी प्रतीक्षा किया करते थे। बगैर किसी संवाद के भी ऐसी प्रगाढ़ आत्मीयता कि लोगों की आंखों से आंसू झरने लगते थे। जीवनभर उन्होंने इस क्रम को टूटने नहीं दिया।

आंखिन देखी

काशी ङ्क्षहदू विश्वविद्यालय में प्राच्य विद्याओं के अध्येता तथा आचार्य प्रो. माधव जनार्दन रटाटे बताते हैैं कि वेद-वैदिक विद्वानों, विप्रों व गुणीजनों के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। अपने यशस्वी पिता तथा राजा साहब के स्नेहभाजन दिवंगत पं. जनार्दन गंगाधर रटाटे के साथ माधव जी ने बाल्यकाल से तरुणाई तक रामनगर दुर्ग में परंपरागत रूप से आयोजित वाल्मीकि रामायण पारायण तथा वसंत पूजा जैसे आयोजनों मेंंं कई बार भाग लिया। वे राजा साहब की श्रद्धाभिव्यक्ति को याद कर आज भी भावुक हो उठते हैैं। कहते हैैं- 'अपराह्न में गोल्फ खेलने के बाद गोधूलि बेला में उनका नित्य संध्या-वंदन में लीन हो जाते देखना एक अजब ही अनुभूति थी जो अब भी कभी याद आने पर व्याकुल कर देती है।

इनसेट

जीवनपर्यंत मिली सशस्त्र बल के गारद की नित्य सलामी

महाराज बनारस का वैभव अन्य राजे-रजवाड़ों की तुलना में भले ही जरा मद्धिम रहा हो, कद-बुत के मामले में उनके सामने कोई नहीं ठहरता। यही वह वजह थी जिसके चलते प्रिवीपर्स की समाप्ति के बाद भी सशस्त्र बल पीएसी की गारद की सलामी के वे अधिकारी बने रहे। काशी नरेश की उपाधि भी उनकी पगड़ी को अंतिम समय तक सुशोभित करती रही।

जीवन वृत्त

जन्म : पांच नवंबर, 1927

जन्मस्थान : सूरजपुर (आजमगढ़)

राज्यारोहण : महाराज कै. आदित्य नारायण के निधन के बाद 1939 में।

काशी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय : 15 अक्टूबर, 1948 (महाराज ने स्वयं रामनगर दुर्ग पर तिरंगा फहराया।)

शिव सायुज्य : 25 दिसंबर, 2000।

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