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Raksha Bandhan 2022 : श्रावणी उपाकर्म दो दिन, 11 को यजुर्वेदिय और 12 को तैत्तिरीय शाखा वाले करेंगे अनुष्ठान

शरीर मन और इंद्रियों की पवित्रता का पर्व श्रावणी उपाकर्म इस बार दो दिन मनाया जाएगा। तिथियों के फेर से सावन पूर्णिमा दो दिन पडऩे के कारण यह शास्त्रीय निर्णय सामने आया है। इसमें यजुर्वेदियों के लिए 11 को व तैत्तिरीय शाखा वालों के लिए 12 को उपाकर्म मान्य होगा।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Mon, 08 Aug 2022 10:52 AM (IST)
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यजुर्वेदियों के लिए 11 अगस्त गुरुवार को व तैत्तिरीय शाखा वालों के लिए 12 अगस्त शुक्रवार को उपाकर्म मान्य होगा।
वाराणसी, जागरण संवाददाता : Raksha Bandhan 2022 शरीर, मन और इंद्रियों की पवित्रता का पर्व श्रावणी उपाकर्म इस बार दो दिन मनाया जाएगा। तिथियों के फेर से सावन पूर्णिमा दो दिन पडऩे के कारण यह शास्त्रीय निर्णय सामने आया है। इसमें यजुर्वेदियों के लिए 11 अगस्त गुरुवार को व तैत्तिरीय शाखा वालों के लिए 12 अगस्त शुक्रवार को उपाकर्म (श्रावणी) Shravani Upakarma 2022 मान्य होगा।

Kashi Hindu Vishwavidyalaya काशी हिंदू विश्व विद्यालय में ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री के अनुसार सनातन परंपरा में नक्षत्रों के नामों से चैत्रादि मासों के नाम ज्योतिष शास्त्र में रखे गए हैैं। उदाहरण के तौर पर चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास वैसे ही श्रवण नक्षत्र से श्रावण मास नियत हुआ है। कालांतर में महर्षि पाणिनि ने -नक्षत्रेण युक्त: काल:- तथा -सास्मिन पौर्णमासी- सूत्र से इसकी पुष्टि की है। इसका अर्थ है कि जिस नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा तिथि हो उसी नक्षत्र से अण् प्रत्यय करके वह मास शब्द बनता है।

इस व्युत्पत्तिपरक अर्थ लेने से सभी श्रावण मास के किए जाने वाले कर्म श्रावणी कर्म ही हैैं। तथापि श्रावणी शब्द उपाकर्म एवं रक्षा बंधन अर्थ में रूढ़ हो गया है। यद्यपि उपाकर्म में रक्षा विधान यानी रक्षा बंधन भी समाहित है। उपाकर्म व राखी बंधन दोनों भिन्न कृत्य हैैं। जनमानस में एकत्व का भ्रम हो जाने से विवाद को अवसर प्राप्त हो जाता है।

उपाकर्म शब्द की व्याख्या करते हुए पारस्कर गृह्य सूत्र 2,10,1 में कहा गया है कि - अथातो ध्यायोपाकर्म। अध्याय कहते हैैं कि वेदाध्यन के आरंभ को अत: कहा गया - उपाकर्म शब्देन वेदारंभ उच्यते। - उपाकर्म हेतु चारों वेदों के विभिन्न शाखाओं के लिए अलग-अलग काल (समय) विहित किया गया है। धर्म शास्त्रों में अनेक आचार्यों के मत भिन्न होने से प्राय: अनिर्णय की स्थिति या भ्रमवश भ्रांति हो जाती है। एक स्थल पर संग्रहोक्त वचन मिलता है जहां कहा गया है कि -भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा- इसका अर्थ है भद्रा में दो कार्य नहीं करने चाहिए। ये हैैं श्रावणी कर्म व होलिकादाह।

यह कथन ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत है। अतएव मान्य नहीं है। कारण यह कि यदि भद्रा में यही दो कार्य वर्जित हैैं तब तो शेष सभी विवाह, यात्रा, गृहारंभ, गृह प्रवेश, देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा व संस्कारादि अन्य समस्त शुभ कर्म भद्रा में होने चाहिए, लेकिन ज्योतिष शास्त्र भद्रा को कुछ चोरी, जारी, अभिचारादि कर्मों को छोड़ कर अन्यत्र भद्रा को अशुभ मानता है। अत: उपाकर्म के विषय में यह भद्रा विषयक कथन स्वत: निरस्त हो जाता है। क्योंकि धर्म शास्त्रज्ञों ने कहा है कि-अत्र उपाकर्मय भद्रादेर्न प्रतिबंधकत्वम्-अपितु भद्रा योगे रक्षा बंधनस्यैव निषेध: - यदि पूर्वोक्त वचन --भद्रायां द्वे न -- को प्रमाण मान भी लिया जाए तो वह केवल राखी बांधने के लिए निषिद्ध है न कि उपाकर्म के लिए।

उपाकर्म के लिए संगव काल को प्रमुखता दी गई है

उपाकर्म हेतु संगव काल को प्रमुखता दी गई है। संगव काल कहते हैैं -दिनस्य द्वितीय याम: - अर्थात दिन का दूसरा प्रहर ही संगव काल है। जब श्रावण मास की पूर्णिमा दो दिन रहती है तब प्राय: संशय की उपस्थिति हो जाती है। ऐसी स्थिति में धर्म शास्त्रों में अत्यंत सूक्ष्मता से विचार किया गया है। इसमें हेमाद्रि, मदन रत्न, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु व निर्णयामृत के आधार पर निर्णय किया गया है- संशये सति यजुर्वे दिनां प्रथम दिन एव कर्तव्यम। - जब संशय हो तब यजुर्वेदियों को प्रथम दिन व तैत्तिरीय शाखा वालों को उदय कालिक पूर्णिमा अर्थात दूसरे दिन में उपाकर्म करना चाहिए। - पर्वण्यौदयिके कुर्यु: श्रावणीं तैत्तिरीयका:। द्वितीयास्मिन दिवसे पर्वण: संगव संबंधाभावेन औदयिकत्वा सिद्धे: पूर्व दिवस एव उपाकर्मनुष्ठानं सिद्धयति।-

इस तरह 11 अगस्त को सुबह 9.30 बजे के बाद उपाकर्म श्रावणी कर्म किया जा सकता है।

विधि : वास्तव में श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष हैैं। इनमें प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय शामिल हैैं। इसमें प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प होता है। गुरु के सानिध्य में ब्रह्मïचारी गाय के दूध, दही-घी के साथ ही गोबर व गोमूत्र और पवित्र कुशा से स्नान कर साल भर में जाने-आनजाने हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित करता है। जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से भरता है।

स्नान विधान के बाद ऋषि पूजा, सूर्योपस्थान व यज्ञोपवीत पूजन कर उसे धारण किया जाता है। यह आत्म संयम का संस्कार है। इस संस्कार से व्यक्ति का पुनर्जन्म माना जाता है। सावित्री, ब्रह्मïा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, सदसस्पति, अनुमति, छंद व ऋषि को घृत से आहुति से स्वाध्याय की शुरुआत होती है। इसके बाद वेद-वेदांग का अध्ययन किया जाता है।

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