RamKrishna Paramhans Birth Anniversary : काशी में सचल विश्वनाथ को स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने लगाया खीर का भोग
स्वामी मेधासानंद द्वारा लिखित पुस्तक वाराणसी ऐट द क्रास रोड में उस दौर में बापुली घराने के वैभव के साथ ठाकुर के काशी प्रवास के कई उद्धरण संग्रहित हैं। उल्लेख है कि प्रवास के दौरान परमहंस प्राय श्रीकाशी विश्वनाथ दरबार व मणिकर्णिका मोक्ष पीठ के दर्शनार्थ जाया करते थे।
By Abhishek sharmaEdited By: Updated: Wed, 17 Feb 2021 05:51 PM (IST)
वाराणसी [कुमार अजय]। बात है 19वीं सदी के उत्तराद्र्ध (1868) की। मां कालिका के वरद पुत्र स्वामी रामकृष्ण परमहंस काशी प्रवास पर थे। बनारस के अभिजात्य बापुली परिवार के राजा बाबू के नाम से ख्यात कालीनाथ बापुली उनके आतिथेय थे। उस समय बापुली भवन पर मानो लगा हुआ था संत साधकों के आने-जाने का रेला। सब कुछ के बाद भी न जाने क्यों ठाकुर स्वामी परमहंस का मन था उचाट और अकेला। उन्हेंं बार-बार लगता था जैसे किसी सिद्ध पुरुष की पुकार बराबर उनके कानों तक आ रही है। मानो उनसे मिलने को आतुर कोई दिव्य आत्मा उन्हेंं आवाज दे-देकर बुला रही है।
स्वामी मेधासानंद द्वारा लिखित पुस्तक वाराणसी ऐट द क्रास रोड में उस दौर में बापुली घराने के वैभव के साथ ठाकुर के काशी प्रवास के कई उद्धरण संग्रहित हैं। उल्लेख है कि प्रवास के दौरान परमहंस स्वामी घाट के रास्ते होते हुए प्राय: नित्य ही श्रीकाशी विश्वनाथ दरबार व मणिकर्णिका मोक्ष पीठ के दर्शनार्थ जाया करते थे। साथ में बंगाल से आए लगभग डेढ़ सौ भक्तों के साथ घाट पर ही ध्यान समाधि लगाया करते थे। एक दिन उन्होंने घाट की सीढिय़ों पर एक साधक को प्रगाढ़ निद्रा में सोते हुए देखा।
वे समझ गए कि यह कोई दिव्य आत्मा है और नींद में नहीं समाधि की चरम अवस्था में है। वे थे तैलंग स्वामी। उन्होंने वहीं बैठकर पूरे धैर्य के साथ सचल विश्वनाथ तैलंग स्वामी के समाधि से बाहर आने की प्रतिक्षा की और ध्यान टूटने के बाद जब दोनों साधकों की दृष्टि से दृष्टि मिली तो पल भर भी नहीं लगा एक-दूसरे को पहचानने में और परिचय जानने में। कुछ ही क्षणों के बाद दोनों ही परमसंत एक दूसरे के आलिंगन में थे। दोनो घंटो एक दूसरे से वैराग्य व जीव ब्रह्म की परिभाषाओं पर बतियाते रहे। परमहंस जी जान गए कि क्यों उनका चित्त अब तक अस्थिर था और किससे मिलने की प्रतीक्षा थी उनके सजल नैनों को।
परमहंस की सौगात वह पायस जीमने की पांत स्वामी रामकृष्ण की प्रबल इच्छा थी कि काश वे स्वामी तैलंग को पायस (खीर) का भोग लगा पाते। अपने मन की लगी लगन को पुरा पाते। उन्होंने कभी कहीं न जाने वाले तैलंग स्वामी को मनुहार भरा न्योता दिया और आश्चर्य कि फक्कड़ मस्त तैलंग बाबा अपने प्रिय पात्र के एक अनुरोध पर बापुली भवन तक खींचे चले आए। बापुली परिवार के वर्तमान प्रतिनिधि सुभोजीत बापुली बताते हैं कि संतों के इस सहभोज में सैकड़ों भक्त और श्रद्धालुओं ने भी प्रसाद पाया और दो अध्यात्म पुरुषों के इस संगम का अनमोल पुण्य प्रसाद पाया।
शुभोजीत बापुली हमें अब जर्जर हो चुके बापुली भवन के उस ऐतिहासिक कक्ष में ले जाते हैं जहां परमहंस स्वामी की चौकी और कांच की मंजूषा में सुरक्षित ठाकुर की खड़ाऊं आज भी पूजित है। शुभोजीत बताते हैं कि विपन्नता के चलते अब इस धरोहरी थाती की साज-संभाल को लेकर पूरा परिवार चिंतित है। बताते हैं कि उन्होंने बेलूर मठ व प्रधानमंत्री दोनों को पत्र लिखकर आग्रह किया है कि इस (पुण्य प्रसून) को एक स्मारक के रूप में संरक्षित किया जाए।
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