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शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के उत्‍तराधिकारी दंडी स्वामी सदानंद सरस्वती और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का जानें काशी से संबंध

Sankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati successor Dandi Swami स्वामी सदानंद सरस्वती और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का काशी से काफी करीबी संबंध रहा है। अब दोनों को ही शंकराचार्य के उत्‍तराधिकारी के तौर पर अलग- अलग पद दिया जा रहा है।

By Abhishek SharmaEdited By: Updated: Tue, 13 Sep 2022 02:38 PM (IST)
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स्वामी सदानंद सरस्वती और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का काशी से संबंध रहा है।

वाराणसी, जागरण संवाददाता। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज के उत्तराधिकारी घोषित किए गए दंडी स्वामी सदानंद सरस्वती और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद दोनों मेधावी हैं, वेद, पुराण और वेदांत दर्शन के ज्ञाता हैं और शास्त्रार्थ में निपुण हैं। इसके साथ ही दोनों का ही काशी से काफी करीबी और अटूट संबंध भी है। 

द्वारका शारदा पीठ का शंकराचार्य घोषित किए गए स्वामी सदानंद सरस्वती का जन्म 31 अगस्त 1958 को गोटेगांव तहसील के ग्राम करकबेल, बरगी में हुआ था। उनकी माता का नाम श्रीमती मानकुंवर देवी और पिता का नाम आयुर्वेदरत्न पं. विद्याधर अवस्थी है। गृहस्थ जीवन में उनका नाम रमेश अवस्थी था। सदानंद सरस्वती की प्रारंभिक शिक्षा बरगी व संस्कृत की शिक्षा ज्योतिरीश्वर ऋषिकुल संस्कृत विद्यालय झौंतेश्वर में हुई। व्याकरण, न्याय, वेद, वेदांत की शिक्षा उन्होंने काशी में प्राप्त की। वह करीब 14 वर्ष की आयु में शंकराचार्य आश्रम में आए।

गुरु चरणों में अटूट श्रद्धा भक्ति को देखते हुए शंकराचार्य ने उन्हें नैष्टिक ब्रह्मचारी की दीक्षा प्रयाग कुंभ में सन 1977 में दी। शंकराचार्य ने सदानंद ब्रह्मचारी का नाम देकर अपनी शक्तियां आशीर्वाद रूप में प्रदान कीं। 15 अप्रैल 2003 को काशी में शंकराचार्य द्वारा दंड संन्यास की दीक्षा देकर ब्रह्मचारी सदानंद को पूर्ण स्वामी सदानंद सरस्वती के रूप में धर्मप्रचार, धर्मादेश देने की आज्ञा प्रदान की।

दंडी स्वामी के गृहस्थ जीवन के चचेरे भाई नरेन्द्र अवस्थी ने बताया कि सदानंद जी समेत तीन भाई और तीन बहनें थीं। सदानंद जी सबसे छोटे हैं। कक्षा आठवीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वह आश्रम चले गए थे। उस समय उनकी उम्र करीब 14 वर्ष थी। सदानंद जी ने नरसिंहपुर में अपने चाचा शिवकुमार अवस्थी के यहां रहकर भी पढ़ाई की।

वहीं धर्म रक्षार्थ सदा आवाज उठाने के लिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जाने जाते हैं। गंगा अविरलता के लिए आंदोलन और गणेश प्रतिमा विसर्जन रोकने पर सड़क पर उतरकर -बरसती लाठियों से भी नहीं डिगे थे आंदोलनकारी संत। द्वारका शारदा व ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के देह त्याग से काशी दुखी तो है, लेकिन उनके उत्तराधिकारी के तौर पर ज्योतिष्पीठ की जिम्मेदारी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का नाम आने के बाद काशीवासियों की आंखों के सामने फिल्म रील की तरह घूम रहा है उनका धर्म रक्षार्थ आंदोलन।

इसमें लोगों को उनका गंगा के लिए अन्न जल त्याग तप के साथ ही गणेश प्रतिमा विसर्जन रोके जाने पर उनका गोदौलिया चौराहे पर धरने के दौरान लाठियां खाना भी याद आ रहा। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के प्रतिनिधि शिष्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए आंदोलन तो कई किए लेकिन इन दोनों ने उन्हें राष्ट्रीय ही नहीं वैश्विक ख्याति दी। नेतृत्व शक्ति का धनी होने के कारण छात्र जीवन में राजनीति में भी हाथ आजमाया।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में वर्ष 1991 में राष्ट्रीय संस्कृत मोर्चा से उपाध्यक्ष रहे तो 1994 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बैनर तले अध्यक्ष भी बने।वास्तव में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद शुरू से ही नेतृत्व व जुझारू तेवर के लिए जाने जाते रहे हैं। वर्ष 1969 में सावन शुक्ल द्वितीया पर 15 अगस्त को प्रतापगढ़ के ब्राह्मणपुरा में रामसुमेर पांडेय व अनारा देवी के घर जन्म हुआ और नाम उमाशंकर रखा गया। खेलने की उम्र में भी उन्हें पौराणिक कहानियां सुनना व मंदिर जाना अच्छा लगता था।

उनकी जन्म कुंडली में मृत्यु योग जान कर पिता व्यथित हो गए और छठवीं की पढ़ाई के बाद गुजरात के बडौदा स्थित विश्वनाथ मंदिर ले गए और तारे तो तू मारे तो तू कहते हुए उनकी शरण में दे दिया। वहां ब्रह्मचारी रामचैतन्य महाराज की शरण में शिक्षा और हरि सेवा चलती रही। कालांतर में एक बार मूर्छित हुए तो लोगों ने इसे मृत्यु योग समझा लेकिन मार्कंडेय ऋषि की तरह बच गए। बडौदा में पांच साल रहने के बाद काशी आए और धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज की शरण ली।

उमाशंकर पांडेय का शास्त्र के प्रति अनुराग देखते हुए करपात्री महाराज की कृपा व नजदीकी मिली। परिणाम रहा कि करपात्री जी को अंत समय में रामचरित मानस सुनाया करते थे।धर्मसंघ में मिली स्वामी स्वरूपानंद की शरणधर्म संघ में प्रवास के दौरान ही शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद महाराज से भेंट हुई। उन्होंने आदेश दिया कि काशी में रहो और पढ़ाई करो। उमाशंकर पांडेय ने इसे गुरु वाक्य मानते हुए संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में नाम लिखाया और शास्त्री और नव्य व्याकरण में आचार्य किया। यहां उनकी प्रखर छात्रनेता के रूप में पहचान भी बनी। छात्रसंघ के उपाध्यक्ष व अध्यक्ष बने तो संस्कृत संवर्द्धन के लिए प्रगतिशील संस्कृत छात्र संगठन भी बनाया।

वर्ष 2000 में बने आनंद स्वरूप और 2003 में अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वतीवर्ष 2000 में स्वामी स्वरूपानंद ने ब्रह्मचारी की दीक्षा दी और उमाशंकर पांडेय ब्रह्मचारी आनंद स्वरूप बन गए। गुरु आदेश को सर्वोपरि मान बढ़ते रहे। तीन साल बाद 2003 में संन्यास दीक्षा हुई और अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती बन गए। दंड दीक्षा लेकर गुरु आदेश से श्रीविद्यामठ का दायित्व संभाला। साथ ही राम मंदिर, रामसेतु, अविरल गंगा समेत आंदोलनों की कमान संभाली। हाल ही में ज्ञानवापी में आदिविश्वेश्वर पूजन के लिए उनके संकल्प को देखते हुए पुलिस के पसीने छूट गए थे। ज्ञानवापी से संबंधित एक मुकदमे में वह वादी भी हैं।

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