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Satyajit Ray Birth Anniversary सत्यजित रे ने दिखाई थी मायानगरी मुंबई को वाराणसी की राह

1976 में सत्यजित रे ने अपनी एक और फिल्म ‘जय बाबा फेलूनाथ की’ शूटिंग के लिए यहां पहुंचे। अहिल्याबाई घाट पर किसी दर्शकों की भीड़ में से किसी हुड़दंगी ने उनके सिर पर ढेला मार दिया फिर तो कभी काशी न आने की घोषणा कर दी।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Sun, 02 May 2021 03:48 PM (IST)
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सदी के चुनिंदा सर्वाेत्तम फिल्म निर्देशकों में शामिल दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित भारत रत्न सत्यजित रे
वाराणसी, शैलेश अस्थाना। Satyajit Ray Birth Anniversary सदी के चुनिंदा सर्वाेत्तम फिल्म निर्देशकों में शामिल दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित भारत रत्न सत्यजित रे (जन्म : 2 मई, 1921- पुण्यतिथि : 23 अप्रैल 1992) ने मायानगरी को वाराणसी की राह दिखाई थी, अपनी दूसरी ही फिल्म अपराजितो की शूटिंग के लिए उन्होंने कोलकाता के साथ ही काशी को चुना। शहर के बंगाली टोला की गलियों, अगस्त्य कुंड मुहल्ला के एक साधारण से मकान, गोदौलिया और दशाश्वमेध घाट व अहिल्याबाई घाट पर किया था। इसके बाद 1976 में उन्होंने अपनी एक और फिल्म ‘जय बाबा फेलूनाथ की’ शूटिंग के लिए यहां पहुंचे। अहिल्याबाई घाट पर किसी दर्शकों की भीड़ में से किसी हुड़दंगी ने उनके सिर पर ढेला मार दिया, फिर तो काशी को टूटकर प्यार करने वाले अत्यंत उदार और सीधे-सादे शाॅत्तोजित राॅय (बंग्ला उच्चारण) इतने आहत हुए कि उसी रात बंग्ला भाषा में 100 शब्दों का एक पर्चा छपवाकर बंटवाया और कभी काशी न आने की घोषणा कर दी। इसका निर्वहन उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों 1992 तक किया और यहां नहीं आए।

फिल्मों में बिंबों के माध्यम से अपनी बात कहने की शुरुआत कर कलात्मक पक्ष को एक नई दिशा और कल्पना की उड़ान देने वाले सत्यजित रॉय का जन्म 02 मई 1921 को कोलकाता में हुआ था। जीवन के शुरुआती दिनों में पेशेवर चित्रकार के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले सत्यजित की मुलाकार 1950 में कोलकाता में ‘दि रिवर’ फिल्म की शूटिंग कर रहे प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्म निर्देशक ज्यां रेनुआ से हुई। इसके बाद उन्होंने लंदन में लाद्री दि बिसिक्लेत (बाइसिकिल चोर) देखी तो फिल्म बनाने की ठान ली और खुद निर्देशक, पटकथा और संवाद लेखक, पार्श्व संगीत के रचनाकार, संपादन, प्रकाशक, आलोचक, चित्रकार और प्रचार सामग्री निर्माता बन बैठे।

काशी प्रवास के दौरान उनके सबसे नजदीक रहे वरिष्ठ पत्रकर एवं वृत्तचित्र फिल्म निर्माता गौतम चटर्जी बताते हैं कि मैंने उनका कई बार इंटरव्यू लिया है, जो पेंगुइन प्रकाशन द्वारा ‘शिखर से संवाद’ नामक पुस्तक में विविध क्षेत्र की बड़ी हस्तियों के साक्षात्कार के साथ प्रकाशित भी है। चटर्जी बताते हैं कि वह जब भी बनारस आते थे, मैं उनसे जरूर मिलता था। वह काफी सरल, सज्जन व सीधे-सादे तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यहां प्राय: वह दशाश्वमेध घाट बोर्डिंग हाउस में ठहरते थे। बंगाली टोला के लोग उनसे सहजता से मिलने जाते थे और सब साथ-साथ चाय पीते थे। पहली बार वह 1956 में काशी आए थे, जब वह अपनी पहली फिल्म ‘पथेर पंचाली’ के सिक्वेंस ‘अपराजितो’ की शूटिंग किए थे।

काशी में यह किसी फीचर फिल्म की पहली शूटिंग थी। ‘अपराजितो’ में पात्र हरिहर की मौत को गंगा तट पर कबूतरों के झुंड को पंख फड़फड़ा कर उड़ने के दृश्य के माध्यम से दिखाया था। फिल्म में इस तरह के बिंबात्मक चित्रण का प्रयोग पहली बार करने पर उनकी पूरी दुनिया के फिल्म जगत में सराहना हुई थी। हालांकि तब मेरा जन्म नहीं हुआ था। 1976 में वह दुबारा आए तो मैं बीएचयू में बीएससी का छात्र था, उनकी फिल्मों का दीवाना था। उनकी फिल्म ‘जय बाबा फेलूनाथ की’ शूटिंग चल रही थी। उनसे मैंने दी-रेस्तरां गोदौलिया में मुलाकात की, खूब बातें हुईं।

शूटिंग देखने के लिए मैं भी गोदौलिया से साइकिल से अहिल्याबाई घाट पर पहुंच गया। वहां विचार हुआ कि अपराजितो फिल्म के कबूतरों की उड़ान वाले उस दृश्य को दुहराया जाय। इसके लिए भीगे चने को घाट पर लकड़ी की एक तिपाई पर रखा गया, दूसरी तिपाई पर लकड़ी के फ्रेम का बड़ा कैमरा था, कबूतरों को आ-आ करके बुलाया जा रहा था, तभी एक सांड़ चना देखकर लपका, मेरी नजर सांड़ पर पड़ी तो मैं दौड़कर चने को वहां से हटा दिया, वर्ना तिपाई गिरती और कैमरा टूट जाता। कैमरा बाल-बाल बचा लेने की वजह से वह मेरी काफी तारीफ किए और मुझे बहुत मानते थे। फिर तो कोलकाता से काशी तक अनेक बार उनसे मिला। वह इतने सज्जन और सरल थे कि कोई पीए नहीं रखते थे। किसी के घर पहुंचने पर गेट खुद खोलते थे। साक्षात्कार देने का मन नहीं होता तो विनम्रता से हाथ जोड़ लेते थे।

हुआ यह कि उसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी फिल्म अमानुष मेें खलनायक की भूमिका निभाने वाले उत्पलदत्त को बनारस के लोग घाट पर देखकर बुरा-भला कह रहे थे। इस पर सत्यजित दा ने उन्हें मना किया। इसे लेकर कुछ लड़के उत्तेजित हो गए, उसी में से किसी अराजक तत्व ने ढेला फेंक दिया जो उनके सिर में लगा। वह इतने व्यथित हुए कि शूटिंग के बाद लौटकर शाम को बंगाली टोला आए और एक बंगाली टाइपिस्ट को खोजकर बंगला में 100 शब्दों का एक प्रेस नोट छपवाए और घोषणा किया कि अब वह कभी काशी नहीं आएंगे।

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