Ustad Bismillah Khan : शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने नहीं टूटने दी रवायत, पेश किया था आंसुओं का नजराना
जब से शहनाई लबों से लगाई तभी से यह बनाई भारत रत्न और शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने कि वह माहे मोहर्रम की हर पांचवीं व आठवीं तारीख को मातमी शहनाई बजाएंगे। गमगीन नौहों की धुनों से शहीदाने कर्बला की शान में आंसुओं का नजराना पेश करेंगे।
By Anurag SinghEdited By: Updated: Sun, 21 Aug 2022 11:20 AM (IST)
वाराणसी, कुमार अजय। Death Anniversary Of Ustad Bismillah Khan : जब से शहनाई लबों से लगाई, तभी से यह मर्जी यह बनाई भारत रत्न और शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहेब ने कि वह माहे मोहर्रम की हर पांचवीं व आठवीं तारीख को मातमी शहनाई बजाएंगे।
गमगीन नौहों की धुनों से शहीदाने कर्बला की शान में आंसुओं का नजराना पेश करेंगे। शहनाई की लरजती धुनों से कर्बला का हौलनाक मंजर आंखों के सामने ला खड़ा कर दिखाएंगे। सिलसिला चला और 50 साल से ज्यादा की उम्र पार कर शहर की रस्मों-रवायतों में शामिल हो गया। एक ऐसी रस्म जिसके जिक्र के बगैर आज भी बनारस के मोहर्रम का दायरा पूरा नहीं होता।
बात है 1980 के दशक की। उस साल मोहर्रम मार्च में पड़ा था। उस्ताद जी गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे। खराब सेहत के साथ घुटनों की तकलीफ बेकाबू थी। इसी मजबूरी के चलते वह उस साल पांचवीं के जुलूस में नहीं शामिल हो पाए थे। रस्म उनके बेटे ने निभाई। आठवीं मोहर्रम को पूरे शहर में बस एक ही चर्चा, उस्ताद जी जुलूस में न सही, फातमान में हाजिरी दर्ज करा पाएंगे या नहीं।
यहां भी जिस्मानी की तकलीफों की दिक्कतों, दुश्वारियों पर एक बार फिर भारी पड़े पुख्ता इरादे और हौसले अपने खां साहेब के। नासाज तबीयत के बावजूद शहनाई के इस शहंशाह ने सिर्फ हौसले और अकीरत की पुख्तगी के दम पर रवायत निभाई। रिक्शे पर सवार होकर पहुंचे दारगाहे फातमान तक और चांदी की अपनी कदीमी शहनाई पर मातमी धुनें बजाकर कर्बाला के शहीदों के नाम आंसुओं का नजराना पेश किया।
बावजूद कमजोरी के खां साहेब ने डूबकर बजाया और लोगों को जार-जार रुलाया। दरअसल, उस रात भी मोहर्रम में खां साहेब की शिरकत को लेकर लोग ऊहापोह की स्थिति में थे। आएंगे कि नहीं आएंगे की जिद्दोजहद के बावजूद खां साहेब के चाहने वालों की जमात शाम से फातमान में जुटने लगी थी।
हिम्मत बांधकर उस्ताद जी ईशा की नमाज के बाद हड़हा स्थित अपने मकान से रिक्शे पर बैठकर जब काली महाल होते हुए फातमान की ओर रवाना हुए मानो शोर मच गया। बात तेजी से फैली और जो जहां था वहीं से फातमान के लिए रवाना हो गया। रात साढ़े नौ बजे के आसपास काले मातमी लिबास में लिपटे खां साहेब ने चांदी से मढ़ी अपनी खास मातमी शहनाई को लरजते होठों से जुंबिश दी और मशहूर नौहों की दर्दीली धुनें माहौल को गमगीन करती बिखरती चली गईं।
गमे हुसैन के समंदर में डूबते-उतराते लोगों के दिलों में उमड़ती-घुमड़ती उदासी और मातमी जज्बात एक बारगी आंसू बनकर लोगों की आंखों से उफन पड़े। जो लोग नौहों के बोल से वाकिफ थे उनकी तो बात ही क्या। जो कर्बला के वाकये तक से वाकिफ न थे, उनकी भी आंखें धुनों में शामिल बेपनाह दर्द को महसूस कर बरस पड़ीं। एक वक्त ऐसा भी आया, जब खुद खां साहेब भी अपने मन में उफनते गम के थपेड़े बर्दाश्त नहीं कर पाए।
पहले हाथ कांपे, फिर होंठ थरथराए और आखिर में मन के अंदर से उठी हूक एक हिचकी की शक्ल में गले से बाहर आई। लरजती मातमी धुनें टूटती-बिखरती चली गईं। कर्बला के शहीदों के नाम यह बेमिसाल नजराना था खिराजे अकीदत का। तबीयत बहुत खराब होने के बाद भी खां साहेब ने वहां मौजूद सभी लोगों का हालचाल लिया और मुख्तसर सी गुफ्तगू भी की। हमेशा की तरह दुआ करते हुए लोगों से विदा ली, इस दुआ के साथ वह ताउम्र यह रिवायत निभा सकें, इसकी ताकत और हिम्मत अल्लाह ताला उन्हें बख्शे।
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