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Tourist places of Varanasi : गुरुधाम मंदिर में समाहित सप्तपुरी और चार धाम, बंगाल के राजा जयनारायण घोषाल ने कराया था निर्माण

बंगाल के राजा जयनारायण घोषाल ने विश्व गुरु भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1814 में वाराणसी के भेलूपुर के समीप हनुमानपुरा क्षेत्र में कराया था। अब यह इलाका इस मंदिर के कारण ही गुरुधाम नाम से जाना जाता है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Sat, 27 Aug 2022 07:24 PM (IST)
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वाराणसी के भेलूपुर के समीप हनुमानपुरा में स्‍थापित गुरुधाम मंदिर

वाराणसी, जागरण संवावददाता : देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी धर्म-अध्यात्म व कला-संस्कृति के साथ ही धरोहरों के लिए जानी जाती। यह थाती समस्त तीर्थों, समस्त स्थापत्य शैलियों के साथ पूरे भारत का दर्शन कराती है।

इनमें गुरुधाम मंदिर अपने आप में एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसे समग्र स्थापत्य शैलियों का इस समुच्चय कह सकते हैं।

बंगाल के राजा जयनारायण घोषाल ने विश्व गुरु भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित इस मंदिर का निर्माण वर्ष 1814 में भेलूपुर के समीप हनुमानपुरा क्षेत्र में कराया था। अब यह इलाका इस मंदिर के कारण ही गुरुधाम नाम से जाना जाता है। निर्माण के समय तकरीबन 21 बीघे में विस्तारित यह मंदिर भारतीय दर्शन व अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। भेलूपुर-लंका मार्ग पर सड़क के दायीं तरफ स्थित नौबतखाने से प्रवेश करने पर इसके दाहिनी ओर नारायण कूप और बायीं ओर रामकुंड तालाब था। वर्तमान में इनका अस्तित्व समाप्त हो चुका है। आगे बढऩे पर लगभग सौ मीटर की दूरी तय कर मूल मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। गुरुधाम मंदिर रोमन, बंगाल व मुगल स्थापत्य की मिश्रित शैली का उदाहरण है।

बंगाल शैली के जहां छोटे छोटे देवालय हैं तो मुगल स्थापत्य की गुंबदाकार शैली तथा पंख सहित सिंह रोमन शैली के प्रतीक हैं। लंबे, बेलनाकार व खांचेदार प्रस्तर स्तंभों पर अवलंबित भवन रोमन शैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है। अष्टकोणीय इस मंदिर में आठ प्रवेश द्वार हैं जिसमें सभी प्रवेश द्वार अलग-अलग प्रतीक चिह्नों से युक्त हैं। साथ ही उनका नाम भी लिखा हुआ है। इसमें मुख्य द्वार काशी द्वार तो घड़ी की विपरीत दिशा से घूमने पर अगले छह द्वार भारत की सप्तपुरियों के नाम से बने हैं और आठवां द्वार गुरु द्वार है।

प्रत्येक द्वार के ऊपर अलग अलग प्रतीक चिह्न अंकित हैँ। जिसमें विविध प्रकार के कलश तथा आशीर्वाद मुद्रा में हाथ की आकृतियां हैं। त्रितल युक्त मुख्य मंदिर में प्रवेश से पहले चौकोर व खांचेदार प्रस्तर स्तंभों पर अवलंबित बरामदे को पार कर गर्भगृह में भूतल पर गुरु वशिष्ठ व अरुंधति की कभी प्रतिमा हुआ करती थी। प्रथम तल पर श्रीकृष्ण व राधिका विराजमान थीं तो ऊपरी तल व्योम यानी शून्य अथवा ब्रह्मांड का प्रतीक है। इसके शिखर पर प्रफुल्ल कमल का प्रतीक इस जगत से मुक्ति का प्रतीक माना जाता था।

मुख्य मंदिर में सभी प्रवेश द्वार के दोनों तरफ साधना कक्ष व उसके ऊपर जाने के लिए सीढिय़ां तथा साधना कक्ष से प्रथम तल पर आने के लिए सेतु का निर्माण किया गया था जो भारतीय दर्शन के अनुसार किसी भी संप्रदाय, किसी भी क्षेत्र, किसी भी माध्यम से साधना के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का प्रतीक माना जाता है। काशी द्वार से प्रवेश करते ही अंदर दो लघु देवालयों में हनुमान जी व गरुण जी की प्रतिमा स्थापित है जो भक्ति परंपरा में श्रेष्ठ भक्त के रूप में जाने जाते हैं।

मंदिर के गर्भगृह में दीवार के अंदर बनी चक्राकार सीढ़ी एक तरफ कुंडिलिनी का प्रतीक मानी जाती है तो दूसरी ओर उसे गुरु कृपा से ईश्वर प्राप्ति व ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का प्रतीक भी दर्शाया गया है। मुख्य मंदिर के प्रथम तल के पश्चिमी द्वार से सीढ़ियों से नीचे उतरने पर एक बड़ा आंगन, उस आंगन में छोटा जलकुंड व आंगन के दोनों तरफ सात- सात लघु देवालय और पश्चिम दिशा में ऊंचे प्रस्तर स्तंभों पर आधारित एक बड़ी संरचना चरण पादुका निर्मित है। इसकी दीवारों पर चारो तरफ ध्यानस्थ चेहरे प्रतीकात्मक रूप से अंकित हैं। यह चरण पादुका भी शून्य का ही प्रतीक है।

यहां पर सात-सात लघु देवालय जहां चौदह भुवन की परिकल्पना को साकार करते हैं, वहीं पश्चिम में स्थित चरण पादुका अपने ध्यान और समर्पण के द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति का महत्वपूर्ण संकेत माना जाता है। इस तरह से समग्र स्थापत्य शैलियों को देखा जाए तो 19वीं सदी में देश में प्रचलित सभी स्थापत्य शैलियों का दर्शन गुरुधाम मंदिर परिसर में सम्यक रूप से होता है। साथ ही साथ शैव-वैष्णव व शाक्त सम्प्रदाय का समागम कराते हुए राष्ट्रीय एकता का अत्यंत सबल संदेश इस स्थापत्य के माध्यम से प्रसारित होता है।

दुनिया का अनूठा देवालय : इस तरह के स्थापत्य का दूसरा कोई उदाहरण देश-दुनिया में अभी तक ज्ञात नहीं है। माना जाता है कि योग साधना की भाव भूमि पर निर्मित यह मंदिर कर्म और अध्यात्म दोनों के संगम का प्रतीक है। भारतीय दर्शन परंपरा के सभी मार्गों एवं सिद्धांतों को स्थापत्य के रूप में निर्मित कर चिर स्थायी बनाने का प्रयास किया गया है।

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