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काशी की होली में परंपराओं के रंग, जब बाबा से ली जाती है रंग खेलने की अनुमति; चढ़ता है ठंडई और चंद्रकला का जादू

दुनिया तो चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होली मनाती है लेकिन काशी इससे 40 दिन पहले माघ शुक्ल पंचमी से ही इस त्योहार के इंद्रधनुषी रंगों में डूब जाता है। वसंत पंचमी पर एक ओर रेड़ गाड़ते हुए होलिका की स्थापना की जाती है तो वैष्णव भक्त होली का श्रीगणेश करते हैं। फागुन शुक्ल एकादशी पर रंगभरी एकादशी के मान-विधान अनुसार काशीवासी अपने पुराधिपति से होली खेलने की अनुमति पाते हैं।

By Jagran News Edited By: Swati Singh Updated: Sat, 23 Mar 2024 02:41 PM (IST)
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रंगों के पर्व होली का खुमार देशभर में छाने लगा है।
प्रमोद यादव, वाराणसी। वाधिदेव महादेव बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी का हर रंग निराला है। इसमें काशीपुराधिपति को प्रिय फाग का भी रंग है। पूरी दुनिया तो चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होली मनाती है, लेकिन काशी इससे 40 दिन पहले माघ शुक्ल पंचमी से ही इस त्योहार के इंद्रधनुषी रंगों में डूब जाता है। वसंत पंचमी पर एक ओर रेड़ गाड़ते हुए होलिका की स्थापना की जाती है तो वैष्णव भक्त होली का श्रीगणेश करते हैं। फागुन शुक्ल एकादशी पर रंगभरी एकादशी के मान-विधान अनुसार काशीवासी अपने पुराधिपति से होली खेलने की अनुमति पाते हैं।

अगले ही दिन बाबा के गणों के रूप में महाश्मशान पर चिता भस्म से होली मनाते हैं। अब इन परंपराओं के निर्वाह के बाद काशीवासियों को इंतजार है फागुन पूर्णिमा की रात का जब होलिका जलाई जाएगी और अगली सुबह चौसट्ठी देवी के चरणों में रंग अर्पित कर समूची काशी होली के रंगों में डूब जाएगी। इसके बाद अबीर-गुलाल के साथ धमाल का क्रम होली के दूसरे मंगलवार को बुढ़वा मंगल तक जारी रहेगा जिसमें रंग के साथ सुर और पुष्प की भी वर्षा होती है। प्रमोद यादव की रिपोर्ट...

माघ शुक्ल पंचमी से वैष्णवी होली

शिव नगरी की रंगोत्सव में एक रंग वैष्णव भक्ति का भी है। वैष्णव भक्त माघ शुक्ल पंचमी तदनुसार वसंत पंचमी से फाग के रंगा-रंग अनुराग में डूब जाते हैं। काशी के विख्यात वैष्णव तीर्थ षष्ठपीठ गोपाल मंदिर में सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा अनुसार यह आयोजन शुरू हुआ। होलाष्टक पर मंदिर के विशाल हरे-भरे बगीचे में आयोजित फागोत्सव श्रीकृष्ण प्रभु की लीला भूमि गोकुल-वृंदावन के कुंज - निकुंजों में स्वयं लीलाधर द्वारा द्वापर में रचाए गए रंगोत्सव के दैवीय आनंद की अनुभूति करा गया। मानों स्वयं ब्रजधाम ही काशी में उतर आने का अहसास दे गया। काशी के धरोहरी उत्सवों की सूची में बगीचे की होली के नाम से अंकित इस मनोहारी उत्सव का स्वरूप प्राचीन काल से ही झूलनोत्सव का रहा है।

बाबा से होली खेलने की अनुमति

पूरी काशी रंगभरी एकादशी से अपने रौ में आ गई है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव माता पार्वती को विवाह के बाद पहली बार काशी लाए थे। पर्व पर महंत आवास स्थित मां गौरा के मायका से बाबा की पालकी निकली तो बाबा व मां गौरा संग बाल गणेश के पूजन-अर्चन व शिव परिवार संग होली खेलने समूची काशी उमड़ी। बाबा के भाल पहला गुलाल सजा कर इसी दिन बाबा से होली खेलने की अनुमति पा ली है।

विजया, ठंडई व चंद्रकला का जादू

काशी की होली में रंग के साथ ठंडाई-भंग और मिठाइयों का भी सतरंगा आयाम जुड़ा है। विजया इस पर्व का मुख्य तत्व है। यह शिवत्व की तरह उस दिन हर मिठाई और ठंडई में समाई रहती है। पूरे शहर में जगह-जगह ठंडई की व्यवस्था रहती है। मिठाइयां भी अलग ही रंगत में दिखती हैं। गुझिया तो अब हर घर में बनने लगी है लेकिन पक्के महाल में बनने वाली इसी की बहन चंद्रकला का स्वाद उस दिन सबके सिर चढ़कर बोलता है।

होलिकाओं का सदियों पुराना इतिहास

बहुत सी होलिकाओं का तो प्राचीन ग्रंथों तक में उल्लेख मिलता है। अनेक होलिकाएं 14वीं सदी से उसी स्थान पर जलती चली आ रही हैं। काशी की होलिका दहन परंपरा में एक और अनूठी चीज दिखती है, वह है होलिका व प्रहलाद की प्रतिमा। प्रत्येक होलिका दहन स्थलों पर बुआ होलिका की गोद में भगवद् भक्त प्रह्लाद की प्रतिमा विधिवत स्थापित की जाती है और दहन किया जाता है। कचौड़ी गली के नुक्कड़ पर जलने वाली होलिका का इतिहास 14वीं सदी से भी पुराना है। पुरनिए बताते हैं कि काशी में यहीं से होलिका में प्रह्लाद की प्रतिमा रखने की शुरुआत हुई थी।

हर मुहल्ले की अपनी परंपरा

अस्सी पर जगन्नाथ मंदिर के नजदीक जलने वाली होलिका का इतिहास भी सदियों पुराना है। अस्सी क्षेत्र में होलिका दहन के दौरान पहले रंगों की पुड़िया और मिठाइयां बांटी जाती थीं। बुजुर्ग बताते हैं कि होलिका की तिजहरिया से ही नगाड़ों का जुलूस चंदा मांगने निकल जाता था।

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