शुंग काल से रहे हैं स्थापत्य में कमल के फूल और घंटियां, मस्जिदों में कहीं नहीं मिलते डमरू, शंख और स्वास्तिक
नंदी और डमरू शैव संप्रदाय के प्रतीक के रूप में शैव धर्मस्थलों शिवालयों पर अंकित मिलते हैं। इनका सीधा संबंध शिव से रहा है। जबकि त्रिशूल शैव और शाक्त दोनों दोनों संप्रदायों के उपासना स्थलों में मिलता है। इस्लामिक या मुगल वास्तु परंपरा में इनका मिलना असंभव है।
By Saurabh ChakravartyEdited By: Updated: Sat, 21 May 2022 06:10 AM (IST)
जागरण संवाददाता, वाराणसी : Varanasi Gyanvapi Case भारतीय स्थापत्य कला का इतिहास देखें तो रेलिंग व छज्जों पर तथा छतों की सीलिंग में, दरवाजों पर खिले कमल के फूलों और घंटियों का चित्रण, अंकन या उकेरी हुई आकृति शुंग काल से ही मिलती है, मध्य काल में यह मुगल वास्तु में भी संयोजित होती दिखाई देती हैं लेकिन डमरू और शंख की आकृति के साथ ऐसा नहीं है। स्वास्तिक एक सामान्य सनातन धार्मिक चिह्न है जो संपूर्ण सनातन परंपरा के साथ जर्मनी आदि में भी मिलता है। यह कहना है काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास एवं कला संस्कृति विभाग की पूर्व प्रोफेसर डा. विदुला जायसवाल का। वह जागरण संवाददाता द्वारा स्थापत्य या वास्तु में इन कलाकृतियों की उपस्थिति और इनके महात्म्य पर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दे रही थीं। ये चिह्न न्यायालय के आदेश पर हुए ज्ञानवापी के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार मस्जिद में भी मिले हैं।
प्रो. जायसवाल बताती हैं कि स्वास्तिक आर्य संस्कृति का प्रतीक है जिसे भारत के सनातन धर्मावलंबियों के अतिरिक्त स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले जर्मनी के नाजियों ने भी अपनाया था। भारतीय सनातन परंपरा में कोई शुभ कार्य हो और घर में स्वास्तिक का प्रतीक न बने, यह तो हो ही नहीं सकता है। यह चिह्न तो हमारी संस्कृति और जीवनशैली का अभिन्न अंग है। इसलिए आवासीय गृह हों या गृहोपयोगी वस्तुएं अथवा उपासना स्थल, हर जगह इस चिह्न का अंकन परंपरागत रूप से प्राचीन काल से होता आया है लेकिन इस्लामिक पंरपरा में इसका प्रयोग कभी नहीं हुआ है। जबकि कमल के फूल, घंटियां और लता-वल्लरी का अंकन मुगलकालीन स्थापत्य में भी शामिल हुआ था। आगरा के किले में भी इसका प्रयोग दिखता है जो मुगल स्थापत्य शैली में बना हुआ है।
बीएचयू से ही संबद्ध आर्य महिला पीजी कालेज में सहायक प्रोफेसर डा. रविशंकर बताते हैं कि
नंदी और डमरू शैव संप्रदाय के प्रतीक के रूप में शैव धर्मस्थलों, शिवालयों पर अंकित मिलते हैं। इनका सीधा संबंध शिव से रहा है। जबकि त्रिशूल शैव और शाक्त दोनों दोनों संप्रदायों के उपासना स्थलों में मिलता है। इस्लामिक या मुगल वास्तु परंपरा में इनका मिलना असंभव है। हां, जिन स्थानों पर मंदिरों काे ध्वस्त करके उन्हीं के मलबे से मस्जिद का निर्माण किया गया है, वहां इनका मिलना स्वाभाविक है। ज्ञानवापी प्रकरण में भी ऐसा ही है।
शंक्वाकार शिखर : डा. रविशंकर बताते हैं कि शंक्वाकार शिखर उत्तर भारत में नागर शैली के स्थापत्य में मिलते हैं। अधिकांश हिंदू मंदिरों पर ऐसे ही शिखर होते हैं जो मंदिरों की उन्नति व भव्यता को भी दर्शाते हैं। इस तरह के शिखरों का प्रयोग जैन मंदिरों व बौद्ध मठों में भी पाया जाता है लेकिन इस्लामिक भवन संरचना में इनका प्रयोग कहीं नहीं मिलता। मस्जिदों की संरचना ही अलग शैली की है। अब ज्ञानवापी में गुंबद के नीचे इनका मिलना सारी कहानी खुद ही स्पष्ट कर देता है।
शिवलिंग या फव्वारा : इस सवाल पर डा. रविशंकर कहते हैं, बिना सामने देखे, इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन जहां तक चित्र और वीडियो देखने पर लगा कि शिवलिंग सदृश काले पत्थर की संरचना पर ऊपर से सफेद सीमेंट से पंखुड़ियाें के समान सरंचना अलग से बनाई गई है। इसलिए वह फटी-फटी सी भी दिख रही है। यदि वह उससे चिपकी हुई नहीं है तो निश्चित रूप से वह शिवलिंग ही है।
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