ऋग्वेद और यजुर्वेद से ही भारत में आरंभ हो गई थी लेखन परंपरा, बीएचयू के वैदिक विज्ञान केंद्र में संगोष्ठी का आयोजन
पाणिनी व्याकरण के बहुत पहले ही भारत में लेखन कला का पर्याप्त विकास हो चुका था। अनेक लौकिक एवं वैदिक ग्रंथ लिखे जा चुके थे। ग्रंथों के लिए पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में खास तौर पर चार सूत्र निर्मित किए।
जागरण संवाददाता, वाराणसी : पाणिनी व्याकरण के बहुत पहले ही भारत में लेखन कला का पर्याप्त विकास हो चुका था। अनेक लौकिक एवं वैदिक ग्रंथ लिखे जा चुके थे। ग्रंथों के लिए पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में खास तौर पर चार सूत्र निर्मित किए। प्रमाण मिलते हैं कि ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से ही भारत में लेखन परंपरा आरंभ हो चुकी थी। यह बातें वैदिक विषयों के विशेषज्ञ डा. ललित मिश्र ने कही।
वह मंगलवार को बीएचयू के वैदिक विज्ञान केंद्र में ‘वैदिक वांग्मय में लेखन परंपरा, वैदिक दृष्टि में काल गणना : वैज्ञानिक विमर्श’ विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने बताया कि प्रथम दृष्टि में भारत के संदर्भ में ब्राह्मी लिपि का विकास एक हजार ईसा पूर्व की सीमा रेखा को स्पर्श करता हुआ दिखता है।
विषय स्थापना वैदिक विज्ञान केंद्र के समन्वयक प्रो. उपेंद्र कुमार त्रिपाठी ने की। अध्यक्षीय उद्बोधन में भारत कला भवन के पूर्व निदेशक डा. डीपी शर्मा ने अनेक पुरातात्विक प्रमाणों और पश्चिमी एशिया के साथ व्यापारिक संबंधों के आधार पर भारत में लेखन कला की प्राचीनता को प्रमाणित किया।
विशिष्ट अतिथि जंतु विज्ञान विभाग के प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे ने कहा कि सैंधव सभ्यता के निवासियों का डीएनए ही भारतीयों में पाया गया है। किसी विदेशी जन के डीएनए से कोई समानता नहीं मिलती है। संचालन संगोष्ठी के आयोजन सचिव डा. प्रभाकर उपाध्याय ने, धन्यवाद ज्ञापन डा. नारायण प्रसाद भट्टराई ने किया। शुभारंभ वैदिक मंगलाचरण एवं नेहा सिंह के कुलगीत की प्रस्तुति से हुआ।