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पितरों की मोक्ष प्राप्ति का महातीर्थ है ब्रह्मकपाल तीर्थ, यहां शिव को इस पाप से मिली थी मुक्ति

पुराणों में बताया गया है कि अलकनंदा नदी के तट पर स्थित ब्रह्मकपाल तीर्थ में एक बार यदि पितरों का पिंडदान व तर्पण कर दिया तो पितरों को सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

By Edited By: Updated: Tue, 17 Sep 2019 08:44 PM (IST)
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पितरों की मोक्ष प्राप्ति का महातीर्थ है ब्रह्मकपाल तीर्थ, यहां शिव को इस पाप से मिली थी मुक्ति
चमोली, देवेंद्र रावत। पुराणों में पितृ तर्पण के लिए जो माहात्म्य बिहार स्थित गया तीर्थ का बताया गया है, वही माहात्म्य उत्तराखंड के चमोली जिले में समुद्रतल से 10480 फीट की ऊंचाई पर बदरीनाथ धाम में ब्रह्मकपाल तीर्थ का भी है। मान्यता है कि अलकनंदा नदी के तट पर स्थित ब्रह्मकपाल तीर्थ में एक बार यदि पितरों का पिंडदान व तर्पण कर दिया तो पितरों को सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। वैसे तो बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने से लेकर बंद होने तक यहां पर पिंडदान का महत्व है। लेकिन, पितृपक्ष के दौरान यहां किए जाने वाले पिंडदान व तर्पण को श्रेयस्कर बताया गया है। यही वजह है कि इन दिनों ब्रह्मकपाल में श्राद्धकर्म के लिए श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ रहा है।

सनातनी परंपरा में हर वर्ष पितृपक्ष में भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक पितृपक्ष मनाया जाता है। इस दौरान लाखों हिंदू धर्मावलंबी अपने पितरों की आत्म शांति के लिए पिंडदान व तर्पण करने ब्रह्मकपाल आते हैं। मान्यता है कि विश्व में एकमात्र श्री बदरीनाथ धाम ही ऐसा स्थान है, जहां ब्रह्मकपाल तीर्थ में पिंडदान व तर्पण करने से पितर दोबारा जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। साथ ही परिजनों को भी पितृदोष व पितृ ऋण से मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए ब्रह्मकपाल को पितरों की मोक्ष प्राप्ति का सर्वोच्च तीर्थ (महातीर्थ) कहा गया है। पुराणों में उल्लेख है कि ब्रह्मकपाल में पिंडदान करने के बाद फिर कहीं पिंडदान की जरूरत नहीं रह जाती। 

'स्कंद पुराण' में कहा गया है कि पिंडदान के लिए गया, पुष्कर, हरिद्वार, प्रयागराज व काशी भी श्रेयस्कर हैं, लेकिन भू-वैकुंठ बदरीनाथ धाम स्थित ब्रह्मकपाल में किया गया पिंडदान इन सबसे आठ गुणा ज्यादा फलदायी है। यह भी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान ब्रह्मकपाल में पितरों का तर्पण करने से वंश वृद्धि होती है।

धर्मग्रंथों में ब्रह्मकपाल तीर्थ की मान्यता

'याज्ञवल्क्य स्मृति' में महर्षि याज्ञवल्क्य लिखते हैं, 'आयु: प्रजां, धनं विद्यां स्वर्गं, मोक्षं सुखानि च। प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता।' (पितर श्राद्ध से तृप्त होकर आयु, पूजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, राज्य एवं अन्य सभी सुख प्रदान करते हैं।) मान्यता है कि ब्रह्माजी जब स्वयं के द्वारा उत्पन्न शतरूपा (सरस्वती) के सौंदर्य पर रीझ गए तो शिव ने त्रिशूल से उनका पांचवां सिर धड़ से अलग कर दिया। ब्रह्मा का यह सिर शिव के त्रिशूल पर चिपक गया और उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप भी लगा। इसके निवारण को शिव आर्यावर्त के अनेक तीर्थ स्थलों पर गए, लेकिन उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति नहीं मिली। सो, वह अपने धाम कैलास लौटने लगे। इसी दौरान बद्रिकाश्रम के पास अलकनंदा नदी में स्नान करने के बाद जब वह बदरीनाथ धाम की ओर बढ़ रहे थे तो धाम से दो सौ मीटर पहले अचानक एक चमत्कार हुआ। ब्रह्माजी का पांचवां सिर उनके हाथ से वहीं गिर गया। जिस स्थान पर वह सिर गिरा, वही स्थान ब्रह्मकपाल कहलाया और इसी स्थान पर शिव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली।

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पांडवों को गोत्र हत्या के पाप से मिली मुक्ति

'श्र मद् भागवत महापुराण' में उल्लेख है कि महाभारत के युद्ध अपने ही बंधु-बांधवों की हत्या करने पर पांडवों को गोत्र हत्या का पाप लगा था। बदरीनाथ धाम के धर्माधिकारी भुवनचंद्र उनियाल बताते हैं कि गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए स्वर्गारोहिणी यात्रा पर जाते हुए पांडवों ने ब्रह्मकपाल में ही अपने पितरों को तर्पण किया था। अलकनंदा नदी के तट पर ब्रह्माजी के सिर के आकार की शिला आज भी विद्यमान है।

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