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देवीधुरा में बग्वाल मेले में फलों के साथ बरसे पत्थर, जानिए इतिहास और मान्यता

हर साल की तरह इस साल भी रक्षाबंधन के मौके पर देवीधुरा में फल और फूलों से बग्वाल खेला गया। इस दौरान मैदान रणबांकुरों से खचाखच भरा नज़र आया।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Mon, 27 Aug 2018 09:18 AM (IST)
देवीधुरा में बग्वाल मेले में फलों के साथ बरसे पत्थर, जानिए इतिहास और मान्यता
लोहाघाट, चंपावत[जेएनएन]: चम्पावत जिले के देवीधुरा स्थित मां वाराही देवी मंदिर के परिसर में आषाढ़ी कौतिक (मेला) के भव्य आयोजन के 50 हजार से अधिक लोग गवाह बने। ठीक बग्वाल शुरू होने से पहले झमाझम बारिश में चारों खामों (बिरादरी) के रणबांकुरों ने सात मिनट 57 सेकेंड तक फूल, फल से युद्ध किया। आखिरी दो मिनट में पत्थर भी बरसे। बग्वाल युद्ध में 241 रणबांकुरे घायल हो गए। जिनका अस्थायी अस्पताल में उपचार किया गया।

रविवार को सुबह से मौसम साफ था। बग्वाल देखने के लिए चम्पावत ही नहीं आसपास के जिलों के हजारों लोग पहुंचे थे। मंदिर परिसर के अलावा आसपास के मकानों की छतें ठसाठस भरी हुई थीं। दोपहर करीब डेढ़ बजे से योद्धा खोलीखांड़ दुबाचौड़ मैदान में जुटना शुरू हो गए थे। सबसे पहले गुलाबी पगड़ी में चम्याल खाम के गंगा सिंह चम्याल के नेतृत्व में उनका दल मैदान में पहुंचे। इसके बाद लाल पगड़ी में गहड़वाल खाम के त्रिलोक सिंह, केसरिया पगड़ी में लमगडिय़ा खाम के वीरेंद्र सिंह व सफेद पगड़ी में वालिक खाम के चेतन सिंह बिष्ट के नेतृत्व में योद्धा मैदान पर पहुंचे। सभी ने मंदिर व मैदान की परिक्रमा की।

बग्वाल शुरू होने से ठीक पहले झमाझम बारिश शुरू हो गई। बारिश के बीच ही 2:38 बजे बग्वाल शुरू हुई और 2.46 बजे तक अनवरत चलती रही। कुल सात मिनट 57 सेकेंड बग्वाल खेली गई। चम्याल व वालिक तथा लमगडिय़ा व गहड़वाल खाम के बीच पराक्रम दिखाने का यह युद्ध चला। बग्वाल खेलने के बाद सभी ने आपस में गले मिलकर बधाई दी। इस दौरान पूरा क्षेत्र मां वाराही के जयकारों से गुंजायमान रहा। युद्ध में 241 लोगों को हल्की चोटें आई हैं।  मेला कमेटी के मुख्य संरक्षक लक्ष्मण सिंह लमगडिय़ा ने दावा किया कि इस बार करीब 50 हजार लोगों ने बग्वाल देखी। मेले में मुख्य रूप से केंद्रीय मंत्री अजय टम्टा व सीएम के प्रतिनिधि बतौर उच्च शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. धन सिंह रावत मौजूद रहे। 

 

ये है बग्वाल का इतिहास 

चम्पावत जिले में स्थित देवीधुरा का ऐतिहासिक बग्वाल मेला आषाढ़ी कौतिक के नाम से भी प्रसिद्ध है। हर साल रक्षा बंधन के मौके पर बग्वाल खेली जाती है।  प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों द्बारा अपनी आराध्य मां वाराही देवी को मनाने के लिए नर बलि देने की प्रथा थी। बताया जाता है कि एक साल चमियाल खाम की एक वृद्धा परिवार की नर बलि की बारी थी। परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे। बताया जाता है कि महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां बाराही की स्तुति की।

मां बाराही ने वृद्धा को दर्शन दिए और चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के निर्देश दिए। तब से बग्वाल की प्रथा शुरू हुई। माना जाता है कि एक इंसान के शरीर में मौजूद खून के बराबर रक्त बहने तक खामों के मध्य पत्थरों से युद्ध यानी बग्वाल खेली जाती है। पुजारी के बग्वाल को रोकने का आदेश तक युद्ध जारी रहता है। मान्यता है कि इस खेल में कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता है।  

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