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अरसा और रोट को एक बार चख लेंगे तो नहीं भूलेंगे ताउम्र इनका जायका

गढ़वाल के पर्वतीय अंचल में पीढ़ियों से कलेऊ देने की पंरपरा चली आ रही है। इनमें सबसे लोकप्रिय है अरसा और रोट। इन्हें आप एक बार चख लें तो ताउम्र इनका जायका नहीं भूलने वाले।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Sat, 24 Nov 2018 12:20 PM (IST)
अरसा और रोट को एक बार चख लेंगे तो नहीं भूलेंगे ताउम्र इनका जायका
देहरादून, दीपिका नेगी। गढ़वाल में शादी-ब्याह जैसे खुशी के मौकों पर मेहमानों को कलेऊ (पारंपरिक मिठाई) देने की अनूठी परंपरा है। असल में कलेऊ मिठाई मात्र न होकर अपनों के प्रति स्नेह दर्शाने का भाव भी है। इसलिए गढ़वाल के पर्वतीय अंचल में पीढ़ियों से कलेऊ देने की पंरपरा चली आ रही है। विवाह की रस्म तो इस सौगात के बिना पूरी ही नहीं मानी जाती। कलेऊ में विभिन्न प्रकार की मिठाइयां होती हैं, जिन्हें विदाई के अवसर पर नाते-रिश्तेदारों को दिया जाता है। इनमें सबसे लोकप्रिय है 'अरसा' और 'रोट'। इन्हें आप एक बार चख लें तो ताउम्र इनका जायका नहीं भूलने वाले। खास बात यह कि अरसा और रोट महीनों तक खराब नहीं होते।

ऐसे तैयार होता है अरसा

अरसा बनाने में महिला और पुरुषों की बराबर भागीदारी होती है। अरसा तैयार करने के लिए गांवभर से महिलाओं को भीगे हुए चावल कूटने के लिए बुलाया जाता है। चावल की  लुगदी बनने के बाद गांव के पुरुष इसे गुड़ की चासनी में मिलाकर मिश्रण तैयार करते हैं। जायका बढ़ाने के लिए इसमें सौंफ, नारियल का चूरा आदि भी मिलाया जाता है। इसके बाद छोटी-छोटी लोइयां बनाकर उन्हें तेल या घी में तला जाता है। कहीं-कहीं अरसों में पाक लगाने की परंपरा भी है। इसके लिए पके हुए अरसों को गुड़ की चासनी में डुबोया जाता है। 

1100 साल पुराना अरसे का इतिहास

इतिहासकारों की मानें तो अरसा बनाने की परंपरा बीते 1100 साल से चली आ रही है। कहते हैं कि जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा बदरी-केदार धाम में दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों को पूजा का दायित्व सौंपे जाने के बाद नवीं सदी में वहां से आने वाले नंबूदरी ब्राह्मण अरसालु लेकर गढ़वाल आए थे। बाद में अरसालु का अपभ्रंश अरसा हो गया। अरसा लंबे समय तक खराब नहीं होता, इसलिए वह इसे पोटलियों में भरकर लाते थे। उन्होंने ही स्थानीय लोगों को इसके महत्व और बनाने की विधि से परिचित कराया।

नक्काशीदार रोट का जवाब नहीं

रोट बनाने के लिए आटे को गुड़ के पानी और देसी घी में गूंथा जाता है। आवश्यकतानुसार इसमें नारियल, सौंफ, किशमिश, बादाम आदि भी मिलाए जाते हैं। इन सबको गूंथने के बाद हाथ से छोटे-छोटे गोले बनाकर इन पर नक्काशीदार ठप्पों से दबाव डाला जाता है। इसके बाद इन्हें तेल या घी में लाल होने तक तला जाता है। यह भी महीनों तक खराब नहीं होते। 

रेस्टोरेंट में बन रहे अरसा और रोट

अब राज्य के मैदानी इलाकों में भी अरसा व रोट को बढ़ावा देने का प्रयास हो रहा है। रेस्टोरेंट में शेफ इन्हें तैयार कर रहे हैं। साथ ही डिमांड के अनुसार इन्हें एक्सपोर्ट भी किया जा रहा है। शादी-ब्याह के मौके पर तो इनकी अच्छी-खासी डिमांड रहती है। दून में सहस्त्रधारा रोड स्थित काफल रेस्टोरेंट के मोहन लखेड़ा बताते हैं कि दो वर्ष से उनके रेस्टोरेंट में रोट व अरसा तैयार किए जा रहे हैं। जो कि सौ रुपये से लेकर 300 रुपये तक के पैक में उपलब्ध है। इन्हें मेरठ, लखनऊ, चंडीगढ़, लुधियाना, दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में भी भेजा जाता है।

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