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उत्तराखंड में मौजूद है तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल, जानिए महत्व

विकासनगर ब्लॉक स्थित बाड़वाला जगतग्राम में वीरान पड़े अश्वमेध यज्ञ स्थल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर एएसआइ ने इस क्षेत्र को नई पहचान दी है।

By Raksha PanthariEdited By: Updated: Mon, 02 Dec 2019 08:19 PM (IST)
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उत्तराखंड में मौजूद है तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल, जानिए महत्व

देहरादून, दिनेश कुकरेती। देहरादून जिले के विकासनगर ब्लॉक स्थित बाड़वाला जगतग्राम में सघन बाग के बीच तीसरी सदी के वीरान पड़े अश्वमेध यज्ञ स्थल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने इस क्षेत्र को नई पहचान दी है। 

विकासनगर से छह किमी की दूरी पर स्थित यह वही स्थल है, जहां कुणिंद (कुलिंद) शासक राजा शील वर्मन ने अश्वमेध यज्ञ किया था। एएसआइ की ओर से वर्ष 1952 से 1954 के बीच किए गए उत्खनन कार्य के बाद यह स्थल प्रकाश में आया। उत्खनन में पक्की ईंटों से बनी तीसरी सदी की तीन यज्ञ वेदिकाओं का पता चला, जो धरातल से तीन-चार फीट नीचे दबी हुई थीं। इन यज्ञ वेदिकाओं को एएसआइ ने दुर्लभतम की श्रेणी में रखा था। तीन में से एक वेदिका की ईंटों पर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्णित सूचना के आधार पर जो एतिहासिक तथ्य उभरकर सामने आए, उनके अनुसार ईसा की पहली से लेकर पांचवीं सदी के बीच तक वर्तमान हरिपुर, सरसावा, विकासनगर और संभवत: लाखामंडल तक युगशैल नामक साम्राज्य फैला था। 

वृषगण गोत्र के वर्मन वंश द्वारा शासित इस साम्राज्य की राजधानी तब हरिपुर हुआ करती थी। तीसरी सदी को इस साम्राज्य का उत्कर्ष काल माना जाता है, जब राजा शील वर्मन ने साम्राज्य की बागडोर संभाली। वह एक परम प्रतापी राजा थे, जिन्होंने जगतग्राम बाड़वाला में चार अश्वमेध यज्ञ कर अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया। इन्हीं अश्वमेध यज्ञों में से तीन यज्ञों की वेदिकाएं यहां मिली हैं, जबकि चौथा यज्ञ स्थल अभी खोजना बाकी है। 

एएसआइ के अधीन, फिर भी उपेक्षित 

पुरातात्विक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण यह अश्वमेध यज्ञ स्थल वर्तमान में एएसआइ के अधीन होने पर भी उपेक्षित पड़ा हुआ है। यहां पहुंचने के लिए एक पगडंडीनुमा मार्ग है, जो एक निजी बाग से होकर गुजरता है। यज्ञ स्थल पर शौचालय तो छोड़िए, पेयजल की सुविधा तक नहीं है, जिससे पर्यटक यहां जाना पसंद नहीं करते। वैसे पुरातत्व विभाग ने इस यज्ञ स्थल की देख-रेख के लिए दो संविदाकर्मी भी तैनात किए हुए हैं। लेकिन, निजी मिल्कियत वाले आम के बाग से रास्ता जाने के कारण उसे पक्का तक नहीं किया जा सका। 

इसलिए किया जाता था अश्वमेध यज्ञ 

प्राचीन काल में शक्तिशाली राजाओं की ओर से अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अश्वमेध यज्ञ किया जाता था। इस यज्ञ में अनुष्ठान के पश्चात एक सुसज्जित अश्व छोड़ दिया जाता था। अश्व जहां-जहां से होकर भी गुजरता था, वह क्षेत्र स्वाभाविक रूप से अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा के अधीन हो जाता था। लेकिन, यदि किसी राजा ने उसे पकड़ लिया तो यज्ञ करने वाले राजा को उससे युद्ध करना पड़ता था। 

सुधरेगी पर्यटन की स्थिति 

अश्वमेध यज्ञ स्थल जगतग्राम बाड़वाला के राष्ट्रीय स्मारक बनने का पर्यटन पर विशेष प्रभाव पड़ेगा। अभी तक पर्यटकों को इस स्थल के बारे में कोई जानकारी नही थी। यज्ञ स्थल तक जाने के लिए कोई रास्ता न होना भी इसकी बड़ी वजह है। लेकिन, अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने के बाद अश्वमेध यज्ञ स्थल पर देश-विदेश के पर्यटकों की संख्या बढऩे की उम्मीद है। अभी तक पर्यटक कालसी स्थित अशोक शिलालेख देखने के लिए यहां आते रहे हैं। लेकिन, राष्ट्रीय स्मारक बनने के बाद अब इस अश्वमेध यज्ञ स्थल के बारे में भी लोगों को जानकारी मिल पाएगी। साथ ही पर्यटन की स्थिति में भी सुधार आएगा। बता दें कि वर्ष 1860 में जॉन फॉरेस्ट नामक अंग्रेज ने कालसी क्षेत्र की खोज की थी। इस दौरान बाड़वाला के पास जगतग्राम के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियां मिली थीं। 

ऐसे घोषित होते हैं राष्ट्रीय स्मारक 

किसी खोदाई स्थल को विशेष परिस्थितियों में ही राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाता है। इसके लिए एक लंबी कागजी प्रक्रिया से गुजरना होता है, जिसमें सालों लग जाते हैं। मगर, एएसआइ को देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी महत्वपूर्ण 11 धरोहरों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने में अप्रैल 2018 से लेकर मार्च 2019 तक का ही समय लगा। यह अपने आप में एक अनूठा रिकॉर्ड है। इन 11 धरोहरों को मिलाकर अब देश में राष्ट्रीय स्मारकों की संख्या 3697 हो गई है। 

पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी 

देहरादून जिले के जगतग्राम के अलावा उत्तरकाशी जिले के पुरोला में भी अश्वमेध यज्ञ के प्रमाण मिले हैं। खास बात यह कि देश में पुरोला के अलावा अब तक कोई भी स्थल नहीं मिला, जहां अश्वमेध यज्ञ की वेदी का इतना स्पष्ट ढांचा हो। इस स्थल पर प्राचीन विशाल उत्खनित ईंटों से बनी यज्ञ वेदी मौजूद है। स्थल की खुदाई में लघु केंद्रीय कक्ष से शुंग कुषाण कालीन (दूसरी सदी ईस्वी पूर्व से दूसरी सदी ईस्वी) मृदभांड, दीपक की राख, जली अस्थियां और काफी मात्रा में कुणिंद शासकों की मुद्राएं मिली हैं। पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी हैं। 

मलारी और रामगंगा घाटी में भी मिली समाधियां 

देहरादून जिले में कालसी के पास भी आरंभिक पाषाणयुगीन अवशेष मिले हैं। जबकि, चमोली जिले के मलारी गांव और पश्चिमी रामगंगा घाटी में महापाषाणकालीन शवाधान (समाधियां) मिलीं। इतिहासकारों के अनुसार सातवीं सदी ईस्वी पूर्व और चौथी सदी ईस्वी के मध्य हिमालय के आद्य इतिहास का प्रमाण मुख्यत: प्राचीन साहित्य है। 

राजा शिव भवानी और राजा शील वर्मन ने किए यज्ञ 

जौनसार-बावर (देहरादून) में जयदास व उनके वंशजों का समृद्ध राज 350-460 ईस्वी तक माना जाता है। इस काल (301-400 ईस्वी) में यहां युगशैल राजाओं का राज भी रहा। इनमें से राजा शिव भवानी ने एक और राजा शील वर्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए। 

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पर्यटन विकास के प्रमाण अश्वमेध यज्ञ 

अश्वमेध यज्ञ इस बात के द्योतक हैं कि क्षेत्र में व्यापार (निर्यात) से प्रचुर लाभ हुआ होगा। व्यापार अपने आप में एक पर्यटनकारी घटक है और अश्वमेध यज्ञ पर्यटन विकास की ही कहानी के प्रमाण हैं। यज्ञ दर्शन और प्रवचन सुनने के लिए यहां बाह्य प्रदेशों से गणमान्य व्यक्ति व पंडित भी आए होंगे, जिससे निश्चित रूप से पर्यटन को नया आयाम मिला होगा। 

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मुद्रा विनियम विकास काल 

कुणिंद अवसान काल की मुद्राएं बेहट, देहरादून, गढ़वाल (सुमाड़ी व डाडामंडी क्षेत्र का भैड़ गांव), काली गंगा घाटी आदि स्थानों पर मिलीं। ताम्र व रजत मुद्राओं के मिलने और हर काल में मुद्रा निर्माण होने में विकास झलकता है। मुद्रा निर्माण से स्पष्ट होता है कि तब उत्तराखंड में व्यापार विकसित था और विनियम के लिए मुद्राएं जरूरी मानी जाने लगी थीं। 

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