बिहार के संदेश से उत्तराखंड की सियासत में सुकून
बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत और एक बार फिर मोदी मैजिक के साफ असर ने उत्तराखंड भाजपा को भी नई ऊर्जा से भर दिया है। भाजपा पर इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के अपने प्रदर्शन को दोहराने का दबाव है।
By Raksha PanthariEdited By: Updated: Sun, 15 Nov 2020 01:16 PM (IST)
देहरादून, राज्य ब्यूरो। बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत और एक बार फिर मोदी मैजिक के असर ने उत्तराखंड भाजपा को भी नई ऊर्जा से भर दिया है। भाजपा पर इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के अपने प्रदर्शन को दोहराने का दबाव है। साथ ही अब तक के चार विधानसभा चुनाव में जो वोटर बिहेवियर रहा है, उसे बदलने की चुनौती से भी जूझना पड़ेगा। खासकर, जिस तरह उत्तराखंड में वजूद रखने वाली दोनों बड़ी सियासी पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस ने अगले चुनाव को सवा साल बाकी रहते नए नेताओं को प्रदेश प्रभारी का जिम्मा सौंपा है, उसने स्पष्ट कर दिया है चुनावी समर दिलचस्प रहेगा।
भाजपा-कांग्रेस में ही रहा है मुख्य मुकाबलाउत्तराखंड में मौजूदा सरकार ने 18 मार्च 2017 को कार्यभार संभाला था। यानी मार्च 2022 से पहले राज्य में अगले विधानसभा चुनाव होने हैं। इस लिहाज से चुनाव को अब सवा साल से थोड़ा ही ज्यादा वक्त वक्त बचा है। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस मुख्यतया सियासत के केंद्र में रही हैं। यही वजह है कि लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, मुख्य मुकाबले में यही दोनों पार्टियां अधिकांश सीटों पर आमने-सामने होती हैं। हालांकि बहुजन समाज पार्टी सूबे के दो मैदानी जिलों, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में ठीकठाक जनाधार रखती है और पहले तीन विधानसभा चुनावों में उसने यह साबित भी किया है।
कभी वोटर ने किसी पार्टी को नहीं किया रिपीटउत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से अब तक चार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इससे पहले राज्य गठन के वक्त अंतरिम विधानसभा भी लगभग डेढ़ साल तक रही। उत्तराखंड के साथ यह दिलचस्प तथ्य शुरू से ही जुड़ा है कि यहां के वोटर ने विधानसभा चुनाव में कभी भी किसी पार्टी को रिपीट नहीं किया। अंतरिम विधानसभा में भाजपा का बहुमत था, तो अंतरिम सरकार भी भाजपा की ही बनी। उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का श्रेय भी भाजपा को ही जाता है। इसके बावजूद वर्ष 2002 में जब पहले विधानसभा चुनाव हुए तो जनमत ने भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा कांग्रेस को मौका दे दिया।
इसीलिए भाजपा बरतती दिख रही कुछ सतर्कतावर्ष 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव में फिर वोटर ने बदलाव का रास्ता चुनाव और कांग्रेस को बेदखल कर भाजपा की सत्ता में वापसी करा दी। वर्ष 2012 के तीसरे विधानसभा चुनाव में भी वोटर के नजरिये में कोई परिवर्तन नहीं दिखा। यानी, फिर भाजपा की बजाए कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। ऐसा ही कुछ वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी हुआ, जब जनादेश गया भाजपा के पक्ष में और कांग्रेस हुई सत्ता से बेदखल। बस, यही वोटर बिहेवियर है, जिससे सत्ता में वापसी की कोशिशों में जुटी कांग्रेस को खुद के लिए अगले विधानसभा चुनाव में कुछ उम्मीदें दिखती हैं। साथ ही भाजपा भी अंदरखाने ही सही, मतदाताओं के इस व्यवहार को लेकर सतर्कता बरत रही है।
बहुमत का बस स्पर्श, इसलिए नहीं दूसरा मौकाहालांकि इस सबके बावजूद भाजपा के पक्ष में एक अहम तथ्य है। वह यह कि पहले तीन विधानसभा चुनावों में सत्ता हासिल करने वाली पार्टियां या तो स्पष्ट बहुमत हासिल ही नहीं कर पाई, या बस केवल बहुमत के आंकड़े को छुआभर ही। उत्तराखंड की 70 सदस्यीय विधानसभा में वर्ष 2002 में कांग्रेस को 36, वर्ष 2007 में भाजपा को 35 और वर्ष 2012 में कांग्रेस को 32 सीट जीतने पर सरकार बनाने का मौका मिला। शायद यही वजह रही कि हर बार वोटर ने सत्तासीन पार्टी को दोबारा मौका देने का विकल्प नहीं चुना। वर्ष 2017 के चुनाव में पहली दफा ऐसा हुआ कि किसी पार्टी को तीन-चौथाई से ज्यादा सीटों के साथ सत्ता मिली।
भारी बहुमत, भाजपा को परंपरा टूटने की उम्मीदवर्ष 2017 में भाजपा ने 57 सीटों पर जीत दर्ज की और इसका असर सरकार की स्थिरता पर साफ तौर पर दिख रहा है। यह एक बड़ी वजह है, जिससे भाजपा को पूरी उम्मीद है कि हर विधानसभा चुनाव में बदलाव की जो परंपरा उत्तराखंड में रही है, वह अगले विधानसभा चुनाव में टूट जाएगी। हालांकि इतना बड़ा बहुमत अब खुद भाजपा के लिए ही एक चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। भाजपा पर दबाव है कि अपने इस चुनावी प्रदर्शन की पुनरावृत्ति वर्ष 2022 के चुनाव में करे। उधर, कांग्रेस ने पिछले चुनाव में अब तक का सबसे कमजोर प्रदर्शन किया, जब पार्टी केवल 11 सीटों पर ही सिमटकर रह गई।
नई रणनीति को भाजपा-कांग्रेस के नए प्रदेश प्रभारीअब दोनों पार्टियां अगले चुनाव के लिए कमर कस चुकी हैं। दोनों ही ने हाल में नए प्रदेश प्रभारियों की नियुक्ति की है, ताकि रणनीति को नई धार दी जा सके। कांग्रेस ने राजस्थान में अपनी रणनीति से सबको प्रभावित कर चुके देवेंद्र यादव को उत्तराखंड का प्रभारी बनाया है। भाजपा ने छह साल के लंबे अंतराल के बाद श्याम जाजू के स्थान पर दुष्यंत कुमार गौतम को प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी सौंपी है। अब इन दोनों के लिए अगले विधानसभा चुनाव के नतीजे कसौटी का काम करेंगे। नतीजों से साबित होगा कि कौन इस कसौटी पर खरा उतरा और कौन मिले मौके का लाभ उठाने से चूक गया।
नमो मैजिक बरकरार, तो फिर भाजपा को सुकूनइस सबके बीच बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा को बड़ी राहत दी है। इसका असर उत्तराखंड में भी दिख रहा है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही करिश्मा रहा कि भाजपा इस बार बिहार विधानसभा में सीटों के लिहाज से एनडीए में सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी। अगर बात करें उत्तराखंड की, तो पिछले दो लोकसभा चुनाव में सभी पांचों सीटों पर जीत का परचम फहराने और पिछले विधानसभा चुनाव में 70 में से 57 सीट जीतने में मोदी मैजिक की ही सबसे बड़ी भूमिका रही। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने फिर साबित कर दिया कि मोदी का जादू न केवल अब भी बरकरार है, बल्कि पहले से ज्यादा मतदाता के सिर चढ़कर बोल रहा है। अब इससे उत्तराखंड में भाजपा सुकून महसूस कर रही है तो यह वाजिब भी है।
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