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लीसा विदोहन में चीड़ की सेहत का भी रखेंगे ख्याल, अपनाई जाएगी यह पद्धति

उत्तराखंड में करीब 16 फीसद हिस्से में पसरे चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने के लिए उन्हें जख्मी नहीं करना पड़ेगा। इसके लिए लीसा विदोहन की रिल पद्धति को बॉय-बॉय कहने की तैयारी है। इसकी जगह बोर होल पद्धति अपनाई जाएगी।

By Sunil NegiEdited By: Updated: Fri, 09 Oct 2020 11:12 AM (IST)
नरेंद्रनगर वन प्रभाग में अपनाई गई बोर होल पद्धति से चीड़ के पेड़ों से इस प्रकार निकाला जा रहा लीसा।
देहरादून, केदार दत्त। उत्तराखंड में करीब 16 फीसद हिस्से में पसरे चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने के लिए उन्हें जख्मी नहीं करना पड़ेगा। इसके लिए लीसा विदोहन की रिल पद्धति को बॉय-बॉय कहने की तैयारी है। इसकी जगह बोर होल पद्धति अपनाई जाएगी। नरेंद्रनगर वन प्रभाग में इसका प्रयोग सफल रहने के बाद मसूरी, टिहरी, बदरीनाथ व गढ़वाल वन प्रभागों में यह पद्धति शुरू की गई है। इसके तहत चीड़ के पेड़ों पर छोटे-छोटे छेद कर उनसे लीसा निकाला जाता है। उत्पादन व गुणवत्ता के मामले में यह बेहतर है तो चीड़ के पेड़ों को ज्यादा नुकसान भी नहीं पहुंचता।

चीड़ से निकलने वाला लीसा (रेजिन) राजस्व प्राप्ति का बड़ा जरिया है। लीसा का उपयोग तारपीन का तेल बनाने में होता है। वन महकमे को अकेले लीसा से सालाना डेढ़ से दो सौ करोड़ की आय होती है। चीड़ के पेड़ों से लीसा विदोहन के लिए 1960-65 में सबसे पहले जोशी वसूला तकनीक अपनाई गई, मगर इससे पेड़ों को भारी नुकसान हुआ। इसके बाद 1985 में इसे बंद कर यूरोपियन रिल पद्धति को अपनाया गया। 

इसमें 40 सेमी से अधिक व्यास के पेड़ों की छाल को छीलकर उसमें 30 सेमी चौड़ाई का घाव बनाया जाता है। उस पर दो मिमी की गहराई की रिल बनाई जाती है और फिर इससे लीसा मिलता है। इस पद्धति में पेड़ों की छिलाई अधिक होने से ये निरंतर टूट रहे थे। अग्निकाल में लीसा घावों पर अधिक आग लग रही थी। साथ ही उत्तम गुणवत्ता का लीसा नहीं मिल पा रहा था।

इस सबको देखते हुए लीसा विदोहन के लिए गत वर्ष पायलट प्रोजेक्ट के तहत नरेंद्रनगर वन प्रभाग में नई बोर होल पद्धति पर कार्य शुरू किया गया। इसके बेहतर नतीजे सामने आए हैं। नरेंद्रनगर के डीएफओ डीएस मीणा बताते हैं कि इस पद्धति से लीसा निकालने के लिए चीड़ के तने को जमीन से 20 सेमी ऊपर हल्का सा छीलकर उसमें गिरमिट अथवा बरमा की मदद से तीन से चार इंच गहराई के छिद्र किए जाते हैं। इन्हें 45 डिग्री के कोण पर तिरछा बनाया जाता है। फिर छिद्र पर जरूरी रसायनों का छिड़काव कर उसमें नलकी फिट की जाती है और इससे आने वाले लीसा को पॉलीथिन की थैलियों में एकत्रित किया जाता है।

डीएफओ मीणा के अनुसार इस पद्धति से लीसा ज्यादा मिलता है और इसकी गुणवत्ता उत्तम है। साथ ही पेड़ों पर किए जाने वाले छिद्र भी कुछ समय में खुद भर जाते हैं। धीरे-धीरे इस पहल को अन्य क्षेत्रों में भी फैलाया जाएगा।

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रोजगार के भी अवसर

नरेंद्रनगर के एसडीओ मनमोहन बिष्ट बताते हैं कि बोर होल पद्धति से जहां चीड़ के पेड़ महफूज रहेंगे, वहीं रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। यह पद्धति बेहद आसान है। वन पंचायतों के जरिये स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें इस कार्य में लगाया जा सकता है। इससे उन्हें वर्ष में आठ माह का रोजगार मिल सकेगा।

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